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________________ अहिसा का मूल आधार : समत्व-योग सुरेशमुनि शास्त्री साहित्यरल + + + + + + - + + + +-+ - + - + -- - - -- - --- ---- - - - - अहिंसा का मौलिक मूल्य मनुष्य का जीवन जब स्वार्थ की सकीर्ण सीमाओ से घिर जाता है, तो समार मे चारो ओर विषमता का दुश्चक्र चल पडता है । परिवार, समाज और राष्ट्र के अन्तराल में दुख, पीडा, वेचनी और व्याकुलता अपने पैर पसारने लगती है । स्वार्थी मनुष्य अपने ही खाने-पीने के लिए, अपने मौज-मजे के लिए, अपने ही सुख-भोग के लिए, दूसरो का शोषण करता है, दूसरो को लूटता है, दूसरो को धोखा देता है, दूसरो की आँखो मे धूल-झोक कर अपना उल्लू सीधा करता है। अपने आराम के लिए इसरो का आराम छीनता है, दूसरो की लाश पर अपनी जिन्दगी का महल खडा करने की कोशिश करता है, अपनी खुशी के लिए औरो को जिन्दगी को कुचलता है- दूसरो के प्राणो के साथ खिलवाड करता है । दूसरो के ऊपर क्या गुजर रही है, इस ओर उसका ध्यान ही नहीं जा पाता । वह तो अपने को ही देखता है । अपने आप मे ही वन्द हो जाता है वह ! अपनी ही इच्छाओ, महत्त्वाकाक्षाओ तथा सुख-सुविधाओ को महत्त्व देता है। इस स्वार्थ-परता तथा सकीर्ण दृष्टि के फलस्वरूप परिवार, समाज और राष्ट्र में हिंसा शोषण, भेद-भाव, तथा दानवता का नगा नाच होने लगता है | मानव, मानव न रहकर दानव बन जाता है। जैन-सस्कृति के वरिष्ठ विधायको ने मानव को जीवन के इस सकुचित धेरे से बाहर निकालने के लिए, स्वार्थ को परमार्थ में परिवर्तित करने के लिए, दानवता को मानवता का रूप देने के २२३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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