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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
तात्पर्य नहीं कि वह चेतन ईश्वर ही है । कर्म को फलित होने के लिए ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं। यदि कर्म के फल के लिए ईश्वर आवश्यक होता, तो ईश्वर के न मानने वालो के कर्मों का कोई फल ही न होता । पर ऐसा नही होता है। यदि चेतन का अर्थ ईश्वर लगाया जाए, तो इस दृष्टि से सारे मतो के अनुयायी ईश्वरवादी हो जाएंगे। परन्तु ईश्वरवादी ईश्वर को साधारण चेतन अर्थ मे नही समझते ।
और भी, कर्म, चेतन पर आश्रित है, यह कथन ठीक नही । चेतन जीव कर्म का विषय है और विषय कदापि विषयी का आधार नहीं होता। यदि यह प्रश्न उठाया जाए, कि विना चेतन के कर्म कैसे हुआ तथा बिना कर्म के चेतन बन्धन मे आया तो कैसे, तो इसका उत्तर यह है कि कर्म एव जीव-दोनो बीजाकुर की भाँति अनादि है। दोनो मे पौर्वापर्य का भेद नहीं है । इस बात को ईश्वरवादी भी मानते है।
यद्यपि कर्म व अनीश्वरवाद पर अनेक ऐसे प्रश्न व विचार है, जिनका विचारपूर्ण अध्ययन काफी रुचिकर एव लाभकारी होगा, परन्तु वह सब लघु निबध की सीमा के बाहर है। उनके लिए तो स्वतन्त्र ग्रन्थो का विशाल क्षेत्र ही उपयुक्त होगा । मैंने यहां पर इतना ही प्रयास किया है कि मुख्य समस्याओ व उलझनो को दृष्टि-पथ मे लाया जाए। यद्यपि मैं स्वय ईश्वरवादी हैं, परन्तु कर्मवाद को सही रूप मे ग्रहण करने पर जैसा कि मैंने पहले कहा है, ईश्वर विषयक विचारो पर आघात पहुंचाता है। आशा है कि विद्वज्जन इस दिशा मे कुछ नयी विचार शृखलाओ का प्रवर्तन करेंगे, ताकि इस विषय पर पूर्ण प्रकाश पड सके।
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