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कर्म और अनीश्वरवाद
की प्रदर्शनी लगानी थी । जव आत्मा पर अपना नियन्त्रण होता है, तब आत्मा का विकास होता है । परन्तु जब आत्म पर किसी दूसरे का नियन्त्रण होता है, तब हाम होता है, अवनति होती है । आत्मा पर परमात्मा का कब्जा नहीं होना चाहिए । उमे स्वच्छन्द आकाश मे पख फडफडाने देना चाहिए, तभी वह शक्तिगाली होगा और अपने स्वस्प को समझेगा । दीन-हीन बनकर ईश्वर के समक्ष घुटने टेकना क्या किमी जमीदार की गुलामी मे कम है ? आत्मा को सवल बनाने के लिए इसी की मर्वोपरि मत्ता स्वीकार करना अनिवार्य है।
इन्ही सब कारणों में जैन, बौद्ध व मीमासकों ने ईश्वरवाद का त्याग कर कर्मवाद को माना । यदि यह कहा जाए कि अनीश्वरवाद--कर्मवाद का म्वाभाविक निप्पन्न स्प है, तो अवाछनीय या अनुपयुक्त न होगा। कर्म की मर्वतोमुखी एव युक्ति-युक्त व्याग्या करने पर ईश्वर की धारणा लुप्त हो जाती है । प्रश्न यह उठता है कि तब ईश्वरवादी कम में विश्वास कमे करने है ? उत्तर है कि वे कर्म को मानते तो है, परन्तु सर्वोच्च नियम के रूप में नही । कर्म-ज्ञान व भक्ति मे बढकर नहीं है। यहाँ तक कि वह ईश्वर के अनुग्रह के भी आधीन है । इसी कारण ईश्वरवादी मप्रदायों में सुविधानुसार कर्मवाद को परिमाणित व मशोधित करने के पश्चात् ग्रहण किया गया है। कही कही तो यह विकृत भी हो गया है। कही राजा के दुष्कर्मों मे माग प्रजा की हानि बताई जाती है, तो कही पत्नी के पुण्य से पति काल के गाल से भी लौट आता है । कही भिक्षा न देने पर गृहस्थ के मारे पुण्य भिक्षुक को स्थानान्तरित हो जाते है, तो कही एक त्रुटि के कारण आजीवन का तपस्वी अनन्त नरक भांगने वाला बताया जाता है। पाश्चात्य विद्वान श्री हापकिन्स ने रायल एशियाटिक मोसाइटी के जर्नल (१६०%E0) मे इस दिशा में सम्यक् प्रकाश डाला है, जो रोचक होने के साथ-माय माननीय भी है।
सारे अनीश्वरवादी इस बात पर एक मत है कि कर्म म्बय फल देता है। इसके सचालन के लिए किसी चेतन की आवश्यकता नहीं है । अचेतन कर्म जब चेतन जीव के सपर्क में आता है, तब कर्म मे एक ऐमी शक्ति आ जाती है, जो जीव के सुख-दुःख का उसके कार्यों के अनुमार निश्चय करती है। मीमासक लोग इस शक्ति को "अपूर्व' या अदृप्ट कहते है तथा जनमतावलम्बी-"कर्म-पुद्गल" । जब हम कोई कार्य करते है तो आत्मा में एक प्रकार का स्फुरण उत्पन्न होता है, जिससे आन्दोलित होकर कर्म-पुद्गल आत्मा के साथ चिपक जाते है और समय पाकर फल देते है । इन कर्म पुद्गलो का आन निरतर होता रहता है, और क्रियाशील जीव मे ये बंधते जाते है । गम्यग् दर्शन, ज्ञान व चारित्र द्वारा ही इनका सवर के उपरान्त निर्जरा हो सकती है। कर्म से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है । बौद्ध दर्शन में इसी कर्म को "सस्कार" कहते है, जिसका कारण अविद्या है। जो कार्य हम करते है, उसका सस्कार बनता है और वही फल देता है । यह एक स्वत चालित व अविच्छिन्न नियम है, जिसमें नियन्ता की आवश्यकता नहीं है।
ईश्वरवादी यहां पर प्रतिवाद कर सकते है कि कर्म को फल देने के लिए आखिर चेतन की शरण लेनी ही पडी, तो अनीश्वरवादी "ईश्वर" से क्यो चिढते है, उसे मान क्यो नही लेते ? इसका उत्तर यह है कि कर्मवाद यह अवश्य मानता है कि कर्म चेतन के साथ कार्य करता है, परन्तु इसका यह
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