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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-प्रन्थ
का विभाजन करता है, तो ईश्वर कर्मवाद के अधीन हुआ ही। यहाँ पर ईश्वर की स्वतन्त्रता को आघात पहुंचता है । यदि वह कर्मवाद की उपेक्षा या उल्लघन करता है, तो वह उन्मत्त एव अनियत्रित तानाशाह कहा जाएगा, जिसकी हुकूमत का कोई नियम ही नहीं।
ईश्वरवादी मतो मे ईश्वर की कृपा या अनुग्रह से जीव को मोक्ष देता है । परन्तु यदि कर्मवाद को वास्तविक अर्थ में लिया जाए, तो ईश्वर के अनुग्रह को कोई स्थान ही नही-कोई अर्थ ही नहीं । कहा जाता है कि ईश्वर की कृपा कर्म की अपेक्षा नहीं करती । बाइबिल के अनुसार ईश्वर के दरबार में निकृष्ट-उत्कृष्ट बन जाता है और अतिम-प्रथम । पापी को मौदा पहले मिल जाता है और पुण्यात्मा को बाद में । कर्मवाद की अवहेलना करके यदि ईश्वर जीवो को मोक्ष देता है, तो एक साथ सभी जीवो को मोक्ष दे देना चाहिए, ताकि सारा किस्सा ही समाप्त हो जाए । परन्तु ऐसा नही होता । शायद ईश्वर ऐसा करने को स्वतन्त्र नहीं है । परन्तु जव कर्म का ध्यान रखे विना ही वह कुछ को मोक्ष दे देता है और कुछ को नही, तो पक्षपाती होगा तथा वैषम्य नेधुण्य का प्रसग उपस्थित हो जाएगा, जिसे ईश्वरवादी कदापि नही मानेगे । दूसरी और यदि पापी को कृपा से मोक्ष प्रदान कर देता है और पापी के सारे कर्म विना भोग के ही नष्ट हो जाते है, तो कर्मवाद की आधारशिला ही चलायमान हो जाती है । तव तो कोई पापी असख्य पाप करने के पश्चात् ईश्वर के समक्ष हाथ जोडकर, कृपापात्र बनकर मुक्ति पा जाएगा । परन्तु लोगो को ईश्वर की ऐसी कृपा का विश्वास हो जाए, तो सभी लोग श्रमसाध्य नैतिक आचार-विचार छोडकर दुष्कर्मों में ही प्रवृत्त हो जाए और सामाजिक जीवन में अराजकता एव नृशसता का नग्न नर्तन होने लगे।
इस प्रकार कर्मवाद व ईश्वर दोनो को मानने से हम एक ऐसी स्थिति पर पहुंचते है, जिसे दार्शनिक शब्दावली में 'उभयत पाशारज्जु' की मजा दी जाती है। यहाँ सॉप-छछू दर की दशा हो जाती है । म निगलना बनता है, न उगलना । ईश्वरवादी यद्यपि इन कठिनाइयो को दूर करने का प्रयत्ल करते है, परन्तु उन्हे इस प्रयास के फलस्वस्प कुछ भी हाथ लगता हो, ऐसा प्रतीत नही होता । अनीश्वरवादी ईश्वर को नहीं मानते, उनका काम बिना ईश्वर के ही चल जाता है। वे तो प्रयत्नलाघव के न्याय को मानते है । यदि ताजा व शुद्ध दूध हमे बाजार से मिल जाए तो गाय घर में रखकर उसके लात सहने से क्या फायदा ? ईश्वर को न मानने से अनेक समस्याएं सुलझ जाती है। कितनी ही चीजें सम्भव हो जाती है। पश्चिम के दार्शनिक नीतो ने घोपणा की-"ईश्वर मर गया।" और यदि ईश्वर मर गया, तो नैतिक आदर्शों व समाज की व्यवस्था का सारा दायित्व मनुप्य के कन्धो पर आ पडता है। पश्चिम के मानवतावादी व अस्तित्ववादी विचारो की पूर्वपीठिका यही है। और यही है भारतवर्ष में अनीश्वरवादी दर्शनो व सम्प्रदायों के विकास की आधारशिला। मानव जाति के विकास के इतिहास पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो पता लगेगा कि ईश्वर के विचार ने मनुष्य के अन्तर मे हीनता की ग्रन्थि उत्पन्न कर दी है । जो कुछ है सब ईश्वर है, जो भी हम करते है सब ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर करते है, ऐसी भावना ने मानवता का पतन अधिक किया है, उत्थान कम । आत्म-निर्भरता का पाठ पढने वाले अनीश्वरवादियो ने विकास के नाम पर चार चाँद लगाएं है। क्योकि उन्हे मानव-शक्ति की थाह लगानी थी, उसे प्रकट करने
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