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________________ कर्म और अनीश्वरवाद अपने किए हुए कर्मों के कारण ही दुख या सुख भोगते है । सन्त तुलसीदास ने बड़े ही सुन्दर शब्दो मे इस तथ्य को स्पष्ट किया है - "कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करइ सो तस फल चाखा ।" जव एक सज्जन व्यक्ति को हम इस जन्म मे कष्ट उठाते देखते हैं, तो एक पूर्वजन्म का अनुमान लगाना पडता है, जिससे किए गए कृत्यो के कारण व्यक्ति-विशेप सज्जन होने के बावजूद भी कष्ट उठाता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति यदि इस जीवन मे अनेक अत्याचार व दुष्कृत्य करता है, तथापि वडे आराम से दिन काट ले जाता है, तो उसके लिए भी एक भावी जीवन की निष्पत्ति करनी होती है, क्योकि कर्म का बिना भोग के क्षय नही होता-"बिना भोगान्न तत्क्षय ।" तथा "नाऽमुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटि शतैरपि।" ___ कर्म की शक्ति बडी अद्भुत है । जड, चेतन, स्थावर, जगम, सुर, असुर आदि कोई भी इसके प्रभाव से वचित नही । सारे ससार का सचालन कर्म के द्वारा ही होता है। रवि, शशी, नक्षत्र तथा तारे सभी कर्म के नियम से परिचालित होते है । सूर्य की प्रत्येक रश्मि, वर्षा की प्रत्येक वूद, धूल का हर एक कण, सागर की सभी तरगे, काल का एक-एक क्षण-यह सब कर्म के कानून के पावन्द है। वैदिक साहित्य मे कर्म को "ऋत" के समकक्ष माना गया है। कर्म स्वय मे अचेतन या निर्जीव है, परन्तु इसका शासन चेतन जगत् पर भी है। ईश्वरवादियो को यह बड़ा अटपटा लगता है। वे यह नहीं समझ पाते कि निर्जीव कैसे सजीव पर शासन कर सकता है । वे कर्म के समुचित सचालन के लिए चेतन ईश्वर को आवश्यक बताते हुए यह कहते है कि कर्म ईश्वर से उत्पन्न हुआ है और ईश्वर कर्माध्यक्ष है-"कर्म ब्रह्मोद्भव विद्धि" (गीता) तथा “एको देव सर्वभूतेषु मूढ सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्ष सर्वभूताधिवास साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।" (श्वेताश्वर उपनिपद्) । परन्तु यदि हम कर्मवाद पर दृढतापूर्वक स्थिर रहे, तो निश्चित रूप से ईश्वर का त्याग करना होगा । ईश्वर की कल्पना करने मे हम जगत् के सारे धेय व प्रेय का समावेश कर डालते है। ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, भक्त-वत्सल, करुणागार, उदार व कृपालु है । परन्तु यदि ईश्वर दया की मूर्ति है और साथ ही साथ जगत् का लप्टा भी है, तो क्यो उसने दुनियाँ मे विभीषिकाएँ, महामारियां, निर्धनता, व्याधियां तथा कलह आदि वनाए यदि उसने इनका निर्माण या सर्जन कर ही दिया, तो वाद मे क्यो नही इनको समूलत नष्ट कर डाला ? वह सर्वशक्तिमान है, तो कोई कारण नहीं कि इनका उन्मूलन न कर सके । यदि यह कहा जाए कि ईश्वर कर्म के अनुसार सृष्टि करता है, तो प्रश्न है कि जब सृष्टि के आदि मे जीव था ही नही तो कर्म भी नहीं रहा, तब कैसे सृष्टि में विषमता आई ? यदि सृष्टि व कर्म तथा जीव सभी को अनादि मान लिया जाए, तो यह विवेकपूर्ण उत्तर की अपेक्षा पलायनवाद ही कहा जाएगा। कर्मवाद और ईश्वरवाद-दोनो को साथ मानकर चलने से हम एक ऐसी जगह पहुंचते है, जहाँ नीचे खाई और ऊपर पहाड है। यदि ईश्वर कूटस्थ व अक्रियाशील है, क्योकि वह आप्तकाम है, तो वह जगत की सृष्टि नहीं कर सकता । और यदि वह क्रियाशील है, तो कर्मवाद के अधीन हुआ। सत् और निरर्थक या सार्थक और असत् ये दो ऐसे विकल्प है, जो ईश्वरवादियो को कभी ग्राह्य नही हो सकते। यदि कर्म ईश्वर का बनाया हुआ है और ईश्वर कर्म के अनुसार सृष्टि निर्माण करता है तथा सुख-दुःखादि २१६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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