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कर्म और अनीश्वर-वाद
श्रीप्रकाश दुबे एम० ए० ++++++++++++++++++++++++++-+-+-+-+-+-+
भारतीय दर्शनो मे लोकायत (चाक) को छोड़कर सभी दर्शन कर्मवाद को मानते है । कर्मवाद का सरलतम एवं स्पष्टतम अर्थ है कि जो जैसा करेगा, वह वैसा भोगेगा। भारत के ऋषि-महर्षियो ने सतत चिंतन के उपरान्त जिस विशाल प्रज्ञा-मन्दिर का निर्माण किया है, उसका स्वर्ण कलश यदि मुक्ति है, तो उसकी आधारशिला कर्मवाद । इस ससार मे कोई धनी है, तो कोई निर्धन । कोई सुखी है, तो कोई दुखी। कोई स्वस्थ और सुन्दर है तो कोई रुग्ण व कुरूप । कोई सदाचारी है, तो कोई दुराचारी। कोई भला है तो कोई बुरा । इन सब विपमताओ का मूल कारण क्या है ? क्यो अच्छे लोग प्राय कष्ट उठाते हैं, और दुष्ट लोग मखमल की सेज पर सोते हैं ? क्यो किसी का एक मात्र पुत्र मर जाता है और दर्जनो पुत्रो वाले निर्धन पिता की वश-वृद्धि लगातार होती जाती है। प्रत्येक जागरूक व्यक्ति के अन्दर अनायास ही यह जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है कि अन्ततोगत्वा इमका कारण क्या है, कहाँ है ? इन सारे प्रश्नो और विषमताओ का एक मात्र उत्तर है "कर्म"।
कर्म का साधारण अर्थ होता है-कार्य, अथवा क्रिया। हम जो भी कार्य करते है, वे उस काय तक ही सीमित नही रह जाते । प्रत्येक कार्य-कलाप एक ऐसा सस्कार छोड जाता है, जो बाद मे उपयुक्त समय व स्थान पाकर फल देता है। हम आज जो कर रहे हैं, उसका फल कल अवश्य मिलेगा। आज जो भोग रहे है, वह भूतकाल के कृत्यो का परिणाम है। हमने जो पेड दस वर्ष पहले लगाया था, उसी का फल आज खाने को मिलता है। जो बीज आज बोया जाएगा, वह तुरन्त फल न देकर भविष्य मे फल देगा। इस प्रकार प्रत्येक कार्य या फलभोग मे भूत, वर्तमान और भविष्य की शृखला बनी रहती है । इसी सिद्धान्त को जरा बड़े पैमाने पर लागू करने से हम पूर्वजन्म व पुनर्जन्म का निष्कर्ष निकालते हैं । हम
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