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________________ भारतीय संस्कृति मे अहिंसा ज्यो-ज्यो आत्मा की सवेदन-गीलता तीव्र-तीव्रतर होती जाएगी, त्यो त्यो प्राणीमात्र को आत्मौपम्य ममझने की भावना जागृत होगी और प्राणीमात्र की रक्षा के लिए मानव न केवल प्रयल करेगा, बल्कि अपना बलिदान करने को भी तैयार रहेगा। यह कैसी विडम्बना है, कि कुछ अहिंसा का दावा करने वाले कोडे-मकोडो को बचाने का प्रयत्न तो करते है किन्तु भूखे, नगे दरिद्र मानव को छटपटाते हुए देखकर भी मन मे करुणा नही लाते । वास्तव में इस प्रकार कीडे-मकोडे को बचाने का प्रयल अहिंसा नहीं है। यह तो अहिंसा के रूप मे आत्मा पर आवरण है। जिससे कृत्रिम सतोप होता है । जिसे कोडे और मकोडे के दुख पर दया आती है, वह व्यक्ति दलित, गोपित और दुःखी मानव की रक्षा के लिए अपने प्राण भी अर्पण कर सकता है। इस प्रकार हमे समझना चाहिए कि अहिंसा का जीवन मे व्यवहार कैसे हो? बहुत बडे-बडे अहिंसावादी लोगो का उनके नौकरो के साथ जव व्यवहार होता है, तब तो दातो तले अगुली दबानी पड जाती है । वे हरी सब्जी खाने मे हिंसा मानते है, पर अपने आश्रितो को प्रताडित करने मे या उनकी आवश्यकताओं का शोषण करने में चातुर्य और कुशलता समझते है । यह हमारी अहिंसा की बिडबना है। काम, क्रोध, मोह आदि विकारो को नष्ट करके मानव-प्रेम, समानता, शोपण का त्याग और समभाव की आराधना करना ही अहिंसा का सम्यक् स्वरूप है । जैसे दातो के बीच जीभ के कुचल जाने पर भी हमे दातो पर क्रोध नही आता, क्योकि हमारा मन यह जानना है कि जीभ मेरी है और दात भी मेरे है, इसी प्रकार मानव के साथ भी अपनापन जुड़ना चाहिए और जब यह जुडेगा, तभी मन के सारे विकार और दोप मिट सकेंगे। मैने ऊपर यह बताया है कि अहिंसा का स्वरूप केवल व्यक्तिगत साधना तक सीमित नहीं है। मदिर में जाना, सामायिक करना, भजन-कीर्तन करना यह मब व्यक्तिगत साधना के तरीके है । यदि कोई समझता हो, कि इन तरीको से अहिंसा की साधना पूरी हो जाएगी, तो वह निरा भ्रम है। अहिंसा की प्रतिष्ठा तो जीवन के हर मोड पर होनी चाहिए। हमारा व्यवहार-व्यापार आदि कैसा है, यह देखकर ही अहिमक जीवन की कसौटी की जा सकती है । अधिक से अधिक शोपण के जरिए पैसा एकत्रित करने की धुन अहिंसा की साधना में सबसे बड़ी बाधा है । जो अहिंसा की साधना चाहता है, उसे सत्य और अपरिग्रह की साधना अनिवार्य रूप से करनी पड़ेगी । कदम-कदम पर यह समझना होगा कि मैं समाज के लिए कही भारभूत तो नही बन गया हूँ ? मेरे कारण कहीं विपमता को, दरिद्रता और गोपण को प्रोत्साहन तो नहीं मिल रहा है ? इस प्रकार सतुलित चिन्तन करते हुए जीवन-व्यवहार चलाना अहिंसक चर्या के लिए आवश्यक है।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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