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भारतीय संस्कृति मे अहिंसा
प्राणी है। पर "एगे आया" के सिद्धान्त के अनुसार समस्त आत्माएं एक ही स्वरूप की है । इसी एकत्व अनुभूति के आधार पर अहिंसा का पालन किया जा सकता है।
शरीर तथा कार्य सबधी गौण उपाधियो के मोह मे पडकर जब मानव स्वय को बाँध लेता है, तब अहिंसा का पूर्ण विकास नही सध पाता । वैयक्तिक और सामुदायिक-सब प्रकार के वधन अहिंसा के विकास को रोकने वाले है। बधन और सकीर्णता का अहिंसा से जन्मजात विरोध है। गगा की मुक्त जलधारा के समान अहिंसा का प्रवाह भी मुक्त और व्यापक होता है। अहिंसा कुटुम्ब, प्रान्त, भाषा, पथ, सप्रदाय या तथाकथित धर्म के गड्ढो मे बद कर दी जाए, तो उसको भी वही हालत होगी, जो हालन गगा के शुद्ध जल की किसी गड्ढे मे बन्द कर देने से होती है । सम्प्रदायवाद के घेरो मे बन्द कर देने से अहिंसा ने अनेक विकृतियां पैदा की-कायरता पनपायी और 'धर्म खतरे में" का नारा देकर हिंसा को प्रोत्साहित किया। इसलिए अहिंसा के पालन और प्रचार के लिए उसे ममस्त वाहरी बधनो से मुक्त रखना होगा।
मानव ने अपनी सुविधा के लिए भाई-बहन, पति-पत्नी, मां-बाप आदि सबध बनाए । इन सबधी का उपयोग यदि मानवता के विकास मे किया जाए, तब तो ठीक है किन्तु इन्ही सबधो को सकीर्ण घेरो का रूप दे दिया जाए और इन सबधो के कारण समाज से हैप किया जाए, तो अहिंसा पनप नही सकेगी। इसी तरह समाज मे सुविधा के लिए कुछ वर्ग बनाए गए तथा व्यवस्था की दृष्टि से पृथ्वी पर सीमा-रेखाएँ खीची गयी। किन्तु इन सबकी उपादेयता केवल व्यवस्था और सुविधा के लिए है । यदि इस मौलिक उद्देश्य को भुला दिया जाए और प्रान्त तथा राष्ट्रीय सीमाओ का व्यामोह हो जाए, तो यह व्यवस्था ही हिंसा का रूप धारण कर लेती है । क्योकि सारे विश्व के मनुष्यो में एक ही स्वरूप वाली आत्मा बसती है यह विचार जब तक कायम रहेगा, तब तक भापा, प्रान्त या राष्ट्र के नाम पर सकीर्णता को प्रश्रय नही मिलेगा।
भाषा के नाम पर मन के टुकडे कर लेना निहायत नासमझी है, क्योकि भाषा भावो को व्यक्त करने का एक साधन मात्र है । यदि उस साधन का दुरुपयोग किया जाएगा, तो उसका परिणाम हिंसा के रूप मे ही प्रगट होगा। इसी तरह सप्रदायो और पथो ने भी अहिंसा के नाम पर सकुचित मत-वादो को प्रश्रय देने के कारण हिंसा को ही प्रोत्साहित किया है । जो आत्म-साधना के भिन्न-भिन्न प्रकार मात्र थी, वे धार्मिक परपराएं ही यदि मानव को मानव से अलग करने का साधन बन जाएंगी, तो अहिंसा के विकास का इतिहास आगे कैसे बढेगा? मेरा आशय इतना ही है, कि मानव समाज के बीच मे भेद की दीवार खडी करना सर्वाधिक हिंसा का कार्य है। इसलिए अहिंसा का पहला रूप यही हो सकता है, कि इस प्रकार के जडतापूर्ण भेदो को नष्ट किया जाए।
यह भेद की दीवार मनुष्य ने अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए खडी की है । वरना समाज में कामो का समुचित बंटवारा बहुत ही अच्छे ढग से किया गया था। समाज की आवश्यकता के अनुसार कुछ लोगो को ज्ञान-विज्ञान की साधना और उसके प्रचार का काम सौपा गया। कुछ लोगो को निर्बलो
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