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भारतीय-संस्कृति में अहिंसा
मुनिधी श्रीमल्ल
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"मातेव सर्वभूतानामहिंसा हितकारिणी"
भेद-ज्ञान पूर्वक अभेद आचरण ही अहिंसा है। जब तक समस्त प्राणियो मे अभेद दृष्टि रखकर नही बरता जाता, तब तक अहिंसा का आचरण नहीं हो सकता । प्रत्येक आत्मा का स्वरूप एक ही प्रकार का है, ऐसा समझकर सभी प्राणियो के साथ अपने ही जैसा सरल, सत्य व्यवहार करना अहिंसा की साधना है । क्योकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए उसके धर्म का और उसकी अहिंसा का स्वरूप भी पूर्णत सामाजिक ही हो सकता है। मनुष्य का विकास समाज के विना सभव नहीं है । बिना दूसरी की सहायता के मनुष्य जी नही सकता । इसीलिए आचार्य उमास्वाति ने "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" कहा है । अर्थात् जीवो का जीवन एक दूसरे के सहयोग से ही चल सकता है। अतएव धर्म और अहिंसा के आचरण मे भी सामाजिकता की दृष्टि अनिवार्य है। सामाजिकता की दृष्टि अभेद आचरण की प्रेरणा देती है। पर भेद-ज्ञान का होना भी जरूरी है। शरीर के अगोपाग एक-दूसरे से भिन्न आकृति वाले प्रतीत होते है, फिर भी उन सबमे एकात्म-वृत्ति है। इसलिए वे अलग-अलग होते हुए भी एकरूप है। पैर मे काँटा चुभते ही मन की प्रेरणा से हाथ अविलब काटे को निकालने के लिए तत्पर हो जाते है । हाथो को ऐसा करने के लिए सिखाना नही पडता । पैर का कॉटा निकालते समय हाथ यह नहीं सोचते कि पैर गदे है, हमसे नीचे है हम इनका स्पर्श कैसे करे ? क्योकि हाथ और पैर मे आकृति-भिन्नता के बावजूद चैतन्य का एकत्व है । "यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे" अर्थात् जो इस शरीर में है, वही पूरे विश्व मे है। शरीर के भिन्न आकृति और भिन्न काम वाले अग-प्रत्यग की तरह ही सारे ससार मे भी अलग-अलग
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