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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
पडा । साधु सघ समुद्र तट पर (सभवत कलिंग मे) चला गया । दुप्काल के समाप्त होने पर साधु संघ पाटलीपुत्र (पटना) मे एकत्र हुआ और एकादश अगो का व्यवस्थित रूप से सकलन किया ।"
विचारक विद्वान् उक्त दुप्काल वीर स० १५५ के आस पास बताते हैं, क्योकि इसी समय के आस पास नन्द साम्राज्य का उन्मूलन होकर मौर्य चन्द्र गुप्त के नेतृत्व मे मौर्य साम्राज्य स्थापित हुआ या। जव राज्य परिवर्तन होता है, तो युद्ध के कारण कृषि आदि की व्यवस्था सव अस्त व्यस्त हो जाती है, जिसका परिपाक अतत दुप्काल के रूप मे ही होता है । अस्तु १२ वर्ष के बाद शासन व्यवस्था ठीक ठीक होने पर, दुष्काल की समाप्ति पर, वीर स० १६० के लगभग पाटलीपुत्र मे श्रमण-सघ की यह इतिहास प्रसिद्ध परिपद हुई। स्थूलभद्र की अध्यक्षता मे उक्त परिपद् ने यथास्मृति ११ अगो का सकलन तो कर लिया, परन्तु १२ ३ दृष्टिवाद का पूर्णरुपेण ज्ञाता कोई मुनि नहीं था, अत उसके सकलन का प्रश्न अटक गया । दृष्टिवाट के पूर्ण ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु थे, और वे दुप्टकाल पड़ने पर ध्यान-साधना के लिए नेपाल चले गए थे। वहाँ वे महाप्राण घ्यान की सिद्धि मे सलग्न थे । पाटलीपुत्र मे उपस्थित श्रमण मघ ने उन्हे दृष्टिवाद के सकलनार्थ बुलाने के लिए दो मुनि भेजे । भद्रबाहु के यह कहने पर कि मैं महाप्राण ध्यान को साधना कर रहा हूँ, मत मैं नहीं आ सकता, तो दोनो मुनि वापस लौट आए। सघ ने पुन दूसरे दो मुनि भेजे और कहलवाया कि संघ की आज्ञा न मानने का क्या दण्ड आता है ? भद्रबाहु ने कहा-"जो सघ की आज्ञा नहीं माने, उसे सघ से बहिष्कृत कर देना चाहिए । मै उक्त दण्ड का भागी हूँ। परन्तु कृपा करके मघ दृष्टिवाद के अभ्यासार्थ मेधावी मुनियो को यहा भेज दे, तो सघ की आज्ञा का पालन भी हो जाए, और उधर मेरी महाप्राण ध्यान की साधना भी क्रमश प्रगतिशील होती रहे । मागत मुनियो को मैं प्रतिदिन सात वाचना देता रहूँगा । एक वाचना गोचर चर्या के पश्चात्, तीन वाचना तीनो काल-वेला मे और शेप तीन सध्या प्रतिक्रमण के पश्चात् रात्रि मे । यदि सघ अभ्यासी मुनियो को न भेजना चाहे, तो मैं स्वय आने के लिए तैयार हूँ।' उक्त विनम्र उत्तर मिलने पर सघ ने स्थूलभद्र आदि ५०० साधुओ को भेजा। अन्य मुनि बीच-बीच में अध्ययन से श्रान्त होते गए, आखिर मे स्थूलभद्र अकेले रह गए । स्थूलभद्र ने आठ वर्ष मे आठ पूर्वो का अध्ययन कर लिया । अन्त मे उनका भी उत्साह मन्द पडने लगा, तो भद्रबाहु के पूछने पर कहा कि "भगवन् । अभी और कितना अध्ययन शेप है ।" भद्रवाहु ने कहा-"वत्स | तू अभी तक एक विन्दु जितना पढ पाया है, समुद्र जितना अध्ययन शेप है।" महामुनि स्थूलभद्र अब जरा और सजग होकर अध्ययन करने लगे, दो वस्तु न्यून दशवे पूर्व तक पहुंच गए। परन्तु इससे आगे वे भी नही पढ सके । कथा-सूत्र है कि स्थूलभद्र ने १० पूर्व तक तो अर्थ सहित अध्ययन किया, और अग्रिम-चार पूर्व मात्र मूल ही पढ पाए, अर्थ नही । और भी कोई १४ पूर्व का सर्वार्थरूप से अध्ययन नहीं कर सका। अस्तु भद्रबाहु स्वामी ही अर्थ-सहित चौदह पूर्व के पूर्ण ज्ञाता, अन्तिम श्रुत केवली माने जाते हैं।
मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त भद्रवाहु स्वामी के अनन्य भक्त थे। डा. हर्मन जेकोबी, डा. राइश, डा० स्मिय, डा० काशीप्रसाद जायसवाल प्रभृति विद्वान चन्द्रगुप्त को जन सम्राट मानते है। प्राचीन प्राकृत प्रथ तिलोयपण्णत्ति मे चन्द्रगुप्त के दीक्षित होने का उल्लेख भी है । सम्राट चन्द्रगुप्त के द्वारा देखे