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पूर्व इतिवृत्त
प्रयाग (इलाहबाद) के पास का गगातटवर्ती प्रतिष्ठान, जिसको आजकल भूसी कहते है अथवा दक्षिण भारत का आन्ध्र देशीय प्रतिष्ठान ? कथासूत्र दक्षिण प्रतिष्ठान (पैठन) का उल्लेख करते है।
भद्रबाहू, प्रभव से प्रारम्भ होने वाली श्रुत केवली परम्परा मे पचम श्रुत केवली है, चतुर्दश पूर्वधर है । इनके पश्चात् अन्य कोई चतुर्दश पूर्वी नही हुआ, अतः यह अन्तिम श्रुत केवली माने जाते है । भद्रबाहु स्वामी का श्रुतज्ञान अतीव निर्मल और व्यापक था। दशाश्रुत स्कन्ध-चूणि मे आपको दशाश्रुत, बृहत् कल्प और व्यवहार सूत्र का निर्माता बताया है। आजकल कल्पसूत्र के नाम से प्रसिद्ध पर्युषण कल्पसूत्र भी आपके द्वारा ही रचित है। मुनि रत्ल सूरि अपने अमम चरित्र के मगलाचरण मे भद्रबाहु को समुद्र विजयादि दश पुत्रो के पिता यदुवशी नरेश शौरिकी उपमा देते है और उनको आवश्यक आदि दश नियुक्तियो का कर्ता मानते है। आचार्य मुनि सुन्दर अपनी गुर्वावली ग्रन्थ मे भद्रबाहु का उपसर्गहर स्तोत्र के रचयिता के रूप मे भी उल्लेख करते है । वृहत्कल्प आदि छेद सूत्रो मे उन्होने उत्सर्ग और अपवाद विधियो का गम्भीर विश्लेषण करके आदर्श और यथार्थ मे योग्य समन्वय प्रस्तुत किया है। आचार सहिता का इतना यथार्थवादी एव व्यवहार मे आने वाला चिन्तन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता । नियुक्तियाँ, आगमसाहित्य पर सर्व प्रथम अर्घ मागधी प्राकृत मे पद्यवद्ध टीकाएं है । नियुक्तियो मे, आगम के मूल भावो का रहस्योद्घाटन बडी ही विद्वतापूर्ण शैली से किया है। वर्तमान में उपलब्ध नियुक्तियो मे कुछ उत्तरकालीन घटनाओ का भी उल्लेख है, उस पर से सिद्ध होता है कि नियुक्तियो की रचना भद्रवाहु ने प्रारम की, और बाद मे वे देशकालानुसार पल्लवित एव परिवद्धित होती गई।
___ भद्रवाहु केवल सूत्रकार, नियुक्ति-व्याख्याकार और स्तोत्रकार ही नहीं थे, वे एक मूर्धन्य कथा साहित्यकार भी थे। उन्होने प्राकृत भाषा मे सपादलक्ष गाथाबद्ध (सवा लाख गाथा मे) वसुदेव चारित्र भी लिखा था । यह ग्रन्थ आजकल नही मिलता है । आचार्य हेमचन्द्र के गुरुदेव पूर्णतलगच्छीय श्री देवचन्द्र ने अपने प्राकृत "सतिनाह चरिय" मे, उक्त ग्रन्थ का अतिरसिक एव बहुकलाकलित विशेषणो के साथ उल्लेख किया है।
अनुश्रुति है कि भद्रबाहु ने प्राकृत-भाषा मे भद्रबाहु सहिता नामक एक महत्वपूर्ण ज्योतिषग्रन्थ भी लिखा था, जिसके आधार पर उत्तरकालीन द्वितीय भद्रबाहु ने संस्कृत मे भद्र बाहु सहिता का निर्माण किया । मूल प्राकृत भद्रबाहु सहिता उपलब्ध नहीं है ।
वराहमिहिर सहिता का निर्माता, वराहमिहिर आपका छोटा भाई था, जो आपके ही साथ दीक्षित भी हुआ था, परन्तु उसको आचार्य पद न देकर जब स्थूलभद्र को आचार्य पद देना निश्चित हुआ, तो वह साधुवेष त्यागकर गृहस्थ बन गया और भद्रबाहु की प्रतिद्वन्द्विता करने लगा । विद्वानो का मत है कि वर्तमान मे उपलब्ध वराहमिहिर सहिता भद्रबाहु के समय की नही है। अत प्रस्तुत वराहमिहिर(विक्रम स० ५४०) से भद्रबाहु का भ्राता वराहमिहिर भिन्न है ।
पाटलीपुत्र मे आगमो की प्रथम वाचना आपके द्वारा ही पूर्ण हुई। उक्त वाचना का आचार्य हरिभद्र अपने उपदेश पद प्राकृत ग्रन्थ मे स्मरण करते है कि "उस समय मे १२ वर्ष का भयकर दुष्काल