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गुरदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
उच्चतम पद व प्रतिष्ठा प्राप्त हुई और जन सामान्य के लिए वे उपास्य बन गए । इस माधना को ब्रह्मचर्य नाम दिया गया और अणुव्रतो तथा महाव्रतो मे उसका भी पाचवें व्रत के रूप में ममावेश किया गया । वैसे तो अपरिग्रह में भी इन्द्रिय निग्रह की भावना निहित थी। परन्तु उसका सम्बन्ध मामान्य जनी के लिए जैशा चाहिए, वैसा आन्तरिक निग्रह के साथ नहीं था। आन्तरिक निग्रह के विना इन्द्रिय
ग्रह पूर्णता पर नहीं पहुंच सकता । इस प्रकार बीतगग भावना का ममावेण होने पर जैनधर्म की परिकल्पना को पूर्णता प्राप्त हुई और जन सामान्य ने महावीर को ही जैनधर्म का प्रवत्र्तक मान लिया। वस्तु-स्थिति यह नहीं है। यह कहा जा सकता है कि भगवान महावीर को लोकोत्तर साधना से जैनधर्म को जो नाम व रूप प्राप्त हुआ, वह अवश्य ही भगवान महावीर की विरासत है।
भगवान् ऋषभदेव से भगवान् महावीर तक जैन धर्म में निरन्तर जो उत्काति हुई, उसको क्रमश साम्य, आत्मौपम्य, अहिंसा, अपरिग्रह तथा ब्रह्मवयं गन्दो में व्यक्त किया जा सकता है। इन्हीं को अणुव्रत तथा महाव्रत का रूप मिला । साम्य का ही नाम मत्य और आत्मौपम्य का अस्तेय हो गया ।, क्यो कि सत्य के विना साम्य और अस्तेय के बिना आत्मौपम्य तत्त्वो का पालन नहीं किया जा सकता। विकास का यह क्रम भगवान महावीर के बाद भी जारी रहा। ऐतिहासिक आधार पर यह नहीं कहा जा सकता, कि जैनवमं मे मन्दिर मूर्ति-मार्ग का समावेश कब और कैसे हुआ, परन्तु यह स्पष्ट है कि इस मार्ग मे विकार पैदा होने के कारण जो पाखण्ड, आडम्बर तथा प्रपच उत्पन्न होते है, उससे जैन धर्म भी वच नहीं सका । मध्यकाल में मन्दिर मूतिमार्ग के विरोध में एक जवरदस्त लहर पैदा हुई । जैन धर्म में वह लहर स्थानकवासी गाखा के रूप में प्रकट हुई। उसके प्रवत्तंक वीर लोकाशाह ने अपने गभीर अध्ययन के आधार पर यह मत व्यक्त किया, कि जैन आगमो मे मन्दिरमूर्ति-मागं का विधान नहीं है। उनको यह मत प्रकट करने पर बडे विरोध का सामना करना पड़ा और अन्य अनेक क्रान्तिकारी मुधारको की तरह घोखे से आहार में दिए गए विप से उनका प्राणान्त हुआ । व जैन धर्म में बहुत बडी क्रान्ति करने में सफल हुए । उसके स्प को वे ऐमा पवार गए कि वह उस समय की एक जबरदस्त लहर को झेल गया। इसी प्रकार वर्तमान युग में पश्चिम में वैसी ही एक लहर और उठी । सनातन हिन्दू धर्म को उस लहर से बचाने के लिए जो काम ब्रह्म-समाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना-समाज तथा आर्य समान आदि ने किया, वही काम जैन धर्म में प्रस्फुटित स्थानकवासी धर्म ने किया। इस प्रकार जैन धर्म को प्रपंच व आडम्बर से और दधिक बचा लिया गया। उसको विशुद्ध रूप में जीवन व्यवहार का धर्म बनाने का एक और सफल प्रयल किया गया। दुःख यह है, कि इस उत्क्रातिमूलक विकासक्रम को सकीर्ण साप्रदायिक दृष्टि से देखा गया और उसके महत्व को ठीक-ठीक आका नही गया। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, कि जैन धर्म उम भीपणकाल मे इम उत्कातिमूलक विकामक्रम के ही कारण अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सफल हो सका, जिसमे श्रमण-संस्कृति की बौद्ध धर्म मरीखी अनेक शाखाएँ प्राय नामशेप हो गई। और सनातन वैदिक संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाली अनेक शाखाएं भी लुप्त होने से बच न सकी। जैन धर्म के विकास के इतिहास का एक बडा ही सुन्दर रोचक और महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसका अध्ययन क्रान्तिकारी दृष्टि से किया जाना चाहिए और उसके प्रकाश मे विविध धर्मों के उत्थान व पतन के मर्म को समझने का प्रयत्न किया जाना चाहिए ।
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