________________
अहिंसा का वैज्ञानिक प्रस्थान
इसी दृष्टि से ब्रह्मचर्य का पालन भी अहिंसा की साधना ही होगी। जीव को पैदा नही होने दिया, तो उसे पैदा करके मरणाधीन बनाने के पाप से हम बच जाएंगे।
करुणा इससे कुछ अधिक बढती है। उसमे कुछ प्रत्यक्ष सेवा करने की बात आती है। प्राणियो को दुख से बचाना, उनके भले के लिए स्वय कष्ट उठाना, त्याग करना, सयम का पालन करना, यह सब क्रियात्मक बाते अहिंसा मे आ जाती है।
आजकल जैन समाज-मे इसकी चिन्ता नही चलती कि हम हिसा के दोष से कैसे बचे। जो कुछ जैनो के लिए आचार बताया गया है, उसका पालन करके लोग सन्तोष मानते है। धर्मबुद्धि जागृत है, लेकिन धार्मिक पुरुषार्थ कम है, तो साधक अणुव्रत का पालन करेंगे। साधना बढने पर दीक्षा लेकर महाव्रतो का पालन करेंगे।
___ अब जिन लोगो ने जीवनदया के अहिंसक आधार का विस्तार किया, उन लोगो ने अपने जमाने के ज्ञान के अनुसार बताया कि पानी गरम करके एक दम ठण्डा करके पीना चाहिए। आलू, बैगन जैसे पदार्थ नही खाने चाहिए। क्योकि हर एक बीज के साथ और हर एक अकुर के साथ जीवोत्पत्ति की सम्भावना होती है। एक आलू खाने से जितने अकुर उतने जीवो की हत्या करने का पाप लगेगा। सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवो की हत्या से बचने के लिए इतना सतर्क रहना पडता है, कि वही जीवन व्यापी साधना बन जाती है। पानी गरम करके एकदम ठण्डा करना, मुंह पत्ती लगाना, शाम के बाद भोजन नहीं करना आदि रीति-धर्म का विकास हुआ।
शुरू-शुरू मे यह वैज्ञानिक शोध-खोज थी। हमारा वैज्ञानिक ज्ञान जैसा बढेगा उसके अनुसार हमारा अहिंसा-धर्म भी। कपिल ने जब साम्य-दृष्टि और आत्मौपम्य भावना के रूप मे धर्म-व्यवस्था कायम की, तब उसका नाम तक जैन धर्म नहीं था। यह कहा जा सकता है, कि इस धर्म-व्यवस्था का श्री गणेश हुआ, उस साम्य भावना से जिसका सम्बन्ध था, मानव के पारस्परिक बाहरी व्यवहार के साथ । आत्म-तत्व की जीवमात्र में अनुभूति होने पर आत्मौपम्य भावना जागृत हुई। इस दृष्टि और भावना मे से ही अहिंसा-तत्व का प्रादुर्भाव हुआ। तब तक जैन धर्म निम्रन्थ धर्म कहा जाता था। भगवान् नेमिनाथ और भगवान् पार्श्वनाथ ने उसमे अपरिग्रह भावना का समावेश किया, क्योकि इसके बिना सामान्य जन के लिए अहिंसा धर्म का पूर्ण रूपेण पालन कर सकना सम्भव न था। भगवान पार्श्वनाथ के बाद वे "जिन" प्रकट होते है, जो वीतरागता पर जोर देते है। उनकी दृष्टि यह होती है कि कठोर इन्द्रिय के निग्रह के बिना राग-द्वेष, कलह, वैमनस्य तथा विरोधभाव पैदा करने वाली दुर्वासनाओ पर विजय प्राप्त नही की जा सकती। ऐसा विचार करने वाले जिनो मे भगवान महावीर का स्थान सर्वोपरि है । "जिन" का अभिप्राय है जितेन्द्रियता। इन्द्रिय-निग्रह की कठोर साधना को जीवन-व्यवहार मे पूरा उतारने वाले "जिन" कहे गए और उन्ही के नाम पर "जिन" शब्द से "जैन" शब्द का प्रादुर्भाव हुआ । भगवान् महावीर ने ३०-३१ वर्ष की आयु मे साढे बारह वर्ष लोकोत्तर तपस्या की, कठोरतम साधना से वीतराग स्थिति का जो उत्कृष्ट आदर्श उपस्थित किया, उसी के कारण उन्हे
२११