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________________ गुरदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ करना इसलिए अभीष्ट लगते है कि इसमे वास्तविकता सबसे अधिक है। हठ-योग हमारे प्राणो को उत्थापित कर मन को सुषुम्णा में खेलने का अवसर दे सकता है। मत्र-योग अभीष्ट दिव्य-शक्ति को साकार बना सकता है, किन्तु यह सब विश्वास के बल पर या सकल्प-शक्ति पर आधारित है। कुण्डलिनी-योग मे भी सकल्प-बल को बहुत बड़ी आवश्यकता है। किन्तु मूल मे कुण्डलिनी शरीर का एक अवयव है । जिसे हमे खोलना है, जागृत करना है, उबुद्ध करना है । कुण्डलिनी-योग की विलक्षणता यह है कि वह शारीरिक भी है और आध्यात्मिक भी । शारीरिक इसलिए कि वह मूलाधार के पास पायु और उपस्थ के बीच योनि-कन्द के निकट, सर्पगी के आकार की एक ऐसी स्नायु है, जो मकडी-जाले के तन्तु के समान सूक्ष्म, स्वर्ण के समान उद्दीप्त और प्रकाश-पुज की तरह आलोकित है। जन्म-जन्म से कुण्डलिनी सोई पड़ी है, उसी स्थान पर सूक्ष्म-तम स्वयभू, शिवलिंगाकृति के चारो ओर सर्पणी की तरह त्रिबली डाले हुए अपनी पूंछ को अपने मुख मे दबाए हुए गाढी निद्रा मे आबद्ध है। उसको जगाने के अनन्तर जब उसका परम-ब्रह्मरन्ध्र की ओर सहस्रार-चक्र मे परम आत्म-तत्व के साथ सायुज्य कराया जाता है । उस कुण्डलिनी जागरण के अलौकिक क्षणो मे मनुष्य बाहर से तो सज्ञाहीन, चेतना-रहित और चेष्टा-रहित हो जाता है, किन्तु साधक के अन्दर मे अलौकिक प्रकाश, प्रगाढ रसास्वादन और अनन्त ज्ञान-गरिमा के सब द्वार खुल जाते है। ससार के चिकित्सक किसी भी साधन के द्वारा, अथवा शल्य-चिकित्सक के द्वारा इस स्नायु-शक्ति को जागृत कर सके, तो अज्ञान की समस्या समाप्त हो जाएगी । कोई जड नही रहेगा, किसी मे मूढता नही रहेगी। परम-ज्ञान, परम-सिद्धि प्रत्येक पुरुष प्राप्त कर सकेगा। अभी तक दिव्य-योगियो ने कुण्डलिनी-साधना के जो क्रम बताए है, वे इतने सरल नहीं हैं कि प्रत्येक व्यक्ति उन्हे अपनी साधना का विपय बना सके। वैसे तो ससार मे भी ऊर्ध्व-चेता, विराटव्यक्तित्व और अनुपम-तेजस्वी महापुरुष पैदा हुए है, उन सब का महापुरुषत्व उनके कुण्डलिनी जागरण मे निहित होता है। निसर्ग से ही प्रत्येक प्राणी में उस सूक्ष्म-तन्तु का किसी न किसी रूप में उन्नयन तो होता ही है, किन्तु यह व्यक्ति मे चमकने वाला प्रकाश, अलौकिक मेधा, विलक्षण प्रतिभा और आत्मस्थिति की अवस्थाएँ, कुण्डलिनी के जागरण और उद्बोध से ही सम्बन्धित होती है। भारत के महान दार्शनिक श्रीशकराचार्य या उनके गुरु गोविन्दपाद, आचार्य समन्तभद्र और आचार्य कुन्दकुन्द, हरिभद्र सूरि या मस्त आध्यात्मिक योगी आनन्दघन, सिद्ध-पुरुष कबीर, सत नानक या भक्त-हृदया मीरा, ये सब उस कुण्डलिनी के ही साधक थे, जिसके उद्बोध से उन्हें यह अवस्था प्राप्त हुई थी। इन सब महात्माओ ने अलग-अलग पद्धतियो का निर्माण किया है, किसी ने सहज-योग के द्वारा और किसी ने हठ-योग के द्वारा । मत्र-जप करते हुए जो विद्युत् का प्रवाह हमारे शरीर मे बहा करता है, व्याख्यान देते हुए जब विषय और वक्ता की तन्मयता इतनी बढ़ जाती है कि जनता उस प्रेम-प्रवाह मे बेसुध हो जाती है, यह सब क्या होता है, इस का उत्तर एक ही है कि यह सब कुण्डलिनी योग का ही चमत्कार है। २०८
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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