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कुण्डलिनी-योग का महत्त्व
आसन से उसे जगाया जा सकता है, ध्यान से उसे सचालित किया जा सकता है। और जप से उसे उद्बुद्ध किया जा सकता है । सकल्प-चल की तो आवश्यकता है हो । किन्तु यह विश्वास रखिए कि कुण्डलिनी जागरण के पीछे आप लगते है, तो चक्र-भेद, विन्दु-भेद या यौगिक हठ-क्रिया के झमेले में पड़ने की आपको जरूरत नही रहेगी। जब कुण्डलिनी जरा सी भी करवट बदल लेगी, तो आपका मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणीपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रा-चक्र सब जगमगा उठेगे । परामुख से उन्मुख हो जाएंगे, विरसता से सरसता बहने लगेगी। शरीर के सभी तन्त्र सभी चक्र और सभी नाडिया अमृत और आनन्द को इस तरह उँडेलना शुरू करेगी कि आप उस परमानन्द मे वेसुध होकर लय हो जाएंगे।
दैनिक कुण्डलिनी का अभ्यास करने से देह-अध्यास छोड देने से इम आनन्द का कुछ न कुछ अनुभव हर साधक को अवश्य मिल जाता है । यदि व्यवस्थित रूप से इस की साधना की जाए, तो इसका कहना ही क्या । अरिहन्त या सिद्ध-प्रभु की शरण लेकर आसन-शुद्धि कर ली जाए, इसके लिए आवश्यक है कि पद्मासन या सिद्धासन लगाना सही आना चाहिए । मूलबन्ध लगाकर प्राण और अपान का ग्रन्थी बन्धन कर धीरे-धीरे प्राण-प्रवाह के साथ-साथ चक्रमण करते हुए, लम्बे श्वास के साथ-साथ कुण्डलिनी पर प्राण को केन्द्रित कर दिया जाए और सकल्प वल से और प्राणोत्थान क्रिया के सहारे, सुषुम्ना के द्वार के ब्राह्मी नाडी के बीच मे कुण्डलिनी को सहस्र की ओर उत्तपर्ण किया जाए, तो कुण्डलिनी जागरण का कुछ न कुछ रसास्वादन मिल जाता है। खैर, मेरा उद्देश्य कुण्डलिनी जागरण की साधना स्पष्ट करने का नहीं है, अपितु कुण्डलिनी-योग के प्रति पाठको की रुचि बढे, उसे जानने की जिज्ञासा जागे, कुण्डलिनी जागरण के रसास्वादन के लिए उत्कण्ठा बढे, यही इस लेख का उद्देश्य है ।
__ मेरा विश्वास है कि कुण्डलिनी-योग से बढ कर द्वद्वातीत बनाने के लिए इससे बढकर कोई दूसरी साधना नही है । जहाँ मत्य अभय के साथ खेलता है, जहां शक्ति शिव के साथ मे विहार करती है, जहां कर्म और क्लेश विदग्ध हो जाते है, जहां महापरिनिर्वाण की अवस्था साक्षात् हो जाती है, वही कुण्डलिनीयोग का जागरण होता है।
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