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कुण्डलिनी-योग का महत्त्व उसका आधिपत्य जम गया। मानवीय सभी समस्याओ मे व जागतिक व्यवस्थाओ और ब्रह्माण्ड की विविध रचनाओ मे धर्म ही एक ऐसा प्रवक्ता बन गया कि उसने जीवन और जगत के सभी क्षेत्रो को अपने अन्तर्गत कर लिया। धीरे धीरे विश्व विद्यालयो ने और शोध-शालाओ ने धर्म से कितने ही क्षेत्रो को छीन लिया, जैसे पदार्थ-विद्या, वनस्पति-विज्ञान, नक्षत्र-विद्या आदि सैकडो प्रकार के विद्या के क्षेत्रो को विश्वविद्यालयो एव शोध-शालाओ ने अपना स्वतन्त्र विषय बना लिया है।
धार्मिक विश्वासो के साथ उनका किसी प्रकार से भी सम्बन्ध नही रह गया है। अब धर्म केवल आत्म-विद्या और आध्यात्मिक विकास के क्रमिक रूप के सिवाय और कुछ नही रहा है। धर्म का राजनीतिक या सामाजिक जीवन की उपेक्षा आध्यात्मिक जीवन से ही यथार्थ सम्बन्ध है, यही सिद्धान्त सर्वसम्मत मान लिया गया है।
इसी प्रकार योग के सम्बन्ध मे भी हमे ध्यान रखना होगा, कि योग का सम्बन्ध शारीरिक विकास के साथ-साथ प्राणोत्थान, मानसिक एकता और आत्म-साक्षात्कार ही है। मन की एकता से आत्मा के साथ मिलन हो सके और हम अपनी देहनात सभी द्वद्वात्मक अवस्थामो से ऊपर उठ कर प्राण, मन, बुद्धि और अहकर के लोक से आगे जा सकें, और देह मे रही हुई चेतना के साथ-साथ अनन्त-शक्ति स्रोतो को उबुद्ध कर सकें और इस नियति के अधीन विश्व की व्यवस्था के चक्कर से परम चैतन्य तत्व को उन्मुक्त कर सकें, यही योग का सबसे बड़ा ध्येय है ।
दर्शन, भारतीय धर्माचार्यों के अनुसार धर्म के सिद्धान्तो की बुद्धि-सगत व्याख्या है । इसी प्रकार योग भी धर्म के आरा परम पुरुषार्थ की सिद्धि का श्रेष्ठतम उपाय है। धर्म, अगर हमारे जीवन की व्यवस्था का नाम है, तो योग जीवन की उस परम सिद्धि का नाम है, जिस अमृत को पाकर के कुछ भी पाने की इच्छा नही रहती । अत धर्म और दर्शन के क्षेत्र से योग हटा दिया जाए, तो हमारे हाथ मे धर्म की आचार-पद्धति, और कुछ पारम्परिक विश्वास व दर्शन की बौद्धिक व्याख्याएँ ही रह जाएंगी, किन्तु आत्म-साक्षात्कार अथवा आत्म-बल का सहारा सदा के लिए हम से विलग हो जाएगा। योग, धर्म की साक्षात् अनुभूति है। उसके बिना न अमृतत्व की प्राप्ति होती है, न धर्म का सर्वस्व ही प्राप्त होता है।
___ योग इतना व्यापक शब्द है और इस पर हजारो वर्षों से इतनी खोज हुई है कि हम उसे किसी एक विश्वास मे, पद्धति मे या अनुशासन मे बाध नही सकते । ससार मे जितने महात्मा-पुरुष हुए हैं, उन सब के पास जो शक्ति या चमत्कार था, वह सब उन्हे योग के द्वारा ही प्राप्त हुआ था। और जिस-जिस महात्मा को, जिस-जिस ढग की साधना सयोग-सिद्धि प्राप्त हुई, उस-उस महात्मा ने उसी पद्धति को सर्वश्रेष्ठ उद्घोषित कर दिया । सहज-योग, हठ-योग, मत्र-योग, लय-योग, राज-योग, कुण्डलिनी-योग, कुल-कुण्डलिनी-योग, चक्र-भेदन, बिन्दु-भेद, त्राटक, छाया-पुरुष आदि आदि अनेको यौगिक साधनो का इतने विस्तृत रूप से विकास हुआ है कि उन सब यौगिक-पद्धतियो को सकलित किया जाए, तो हम इस छोटे से लेख मे उनका नामोल्लेख भी नही कर सकते। योग के सभी साधनो मे कुण्डलिनी-योग की चर्चा
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