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________________ कुण्डलिनी-योग का महत्त्व मुनि सुशील कुमारजी + + + + + + ++ + + + + + + + ++ + + + + + + ++ + + + +-+-+-+ आत्मा की खोज करते हुए अनेक प्रकार की नई विधामो का सिंहद्वार खुला है। वे सब आत्मविद्या के अन्तर्गत भी है और उनका सम्बन्ध जीवन के बाह्य क्षेत्रो से भी है। धर्म-विद्या, दार्शनिकचिन्तन और यौगिक अनुसन्धान ये सव आत्म-विद्या की आनुपगिक विद्याएँ है। इन सबके सम्बन्ध में हजारो वर्षों से गहरी शोध हुई है। धर्म के अभ्यासियो ने, दर्शन के आचार्यों ने और योग के साधको ने जीवन की अनुभूतियो को और चमत्कारी शक्तियो को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है, कि सारा विश्व इन उपलब्धियो के पीछे अभिभूत हो गया है। इन पिछले पांच हजार वर्षों से अकेला धर्म सारे विश्व के तन्त्र को संचालित करता रहा है। दशन ने मनुष्य की बुद्धि को अनेको विश्वासो के सांचे मे ढाला है और योग ने देश मे विदेह और अणु मे महत्-तत्व की प्रतिष्ठा की है। आखिर हम सब अपने सम्बन्ध मे और इस दृश्य या अदृश्य-जगत के सम्बन्ध मे जितनी भी धारणा या विश्वास बनाए बैठे है, ये सब हमारे पूर्वज विचारको की ही तो देन है । आत्मा, अन्त करण, चेतना, रूह, सोल या पदार्थों का सघीभूत पुद्गल-पिण्ड आदि जितने भी शब्द है, जिनके पीछे हम अपने स्वरूप को स्थापित किए बैठे है, और अपने को चेतनावान् या आत्मवान् माने बैठे है, ये सब हमारे विश्वास ही तो है। हमारे इन विश्वासो के पीछे सत्य कितना है और असत्य का कुहरा कितना छाया हुआ है, यह तो शोध का विषय है। किन्तु अगर धर्म सत्य है, तो दर्शन भी सत्य है। योग भी सत्य है चाहे आशिक रूप मे ही या सर्वाश मे। धर्म का क्षेत्र इन पिछले हजारो वर्षों मे इतना विस्तृत हो गया, कि जीवन के सभी क्षेत्रो मे २०६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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