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यथार्थवाद और भारतीय दशन
बनकर, नीति और मूल्य की कदर न करते हुए निज आत्मा को फंसाएगा । मेरी दृष्टि में भारत मे कुछ हद तक ये दोनो परिणाम दिखाई देते है । अत यद्यपि 'यथार्थवाद की कल्पना' दर्शन शास्त्र में आज महत्त्व की कल्पना नहीं है, फिर भी भारत के लिए आज भी वह महत्त्वपूर्ण कल्पना है, भारतीय दर्शन में केवल विज्ञानवाद ही है और यथार्थवाद दिखाई नहीं देता, ऐसी विचारधारा का त्याग करना आवश्यक है। इतना ही नहीं, यह जानना जरूरी है कि उपनिपद् की भी अजातवादी ब्याख्या करना जरूरी नही और इष्ट तो बिल्कुल नहीं । रामानुज और मध्व ससार को असत्य मानते है । शंकराचार्य भी जगत् को मिथ्या मानते है, तब वे जगत् को 'असत्य' नहीं समझते (यद्यपि जगत् को असत्य समझने का यह एक प्रकार प्रारम्भ है), यह जानना आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि भारतीय दर्शन यथार्थवाद के विरोधी है, यह कल्पना सत्य नही है।
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