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________________ गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ ऐकान्तिक यथार्थवाद या विज्ञानवाद विश्व का गूढ रहस्य सुलझाने में समर्थ है, ऐसा मानना मै गैर समझता हूँ। बहुधा विश्व का, इस प्रकार का सच्चा स्वरूप जानना मानव को शक्य ही नहीं । उसको दो आँखे है, इसलिए उसको विश्व त्रिमित (Three Dimensional) दिखाई देता है। और उसके नासिका और कान है, इसलिए उसको सुगन्ध और आवाज आती है। विश्व का सभी प्रकार का 'नाद' वह सुन नही सकता। यह तो विज्ञान (Science) ने सिद्ध किया है। किन्तु क्या हम जिसका अनुभव करते है, वह विश्व का 'सच्चा' स्वरूप नही है ? क्या विज्ञान के Laws को ही विश्व का सच्चा स्वरूप मान सकते है ? वैसा ही यदि हुआ तो विश्व को 'Electio-Magnetic Quanta' ही समझना पडेगा । केवल कारण ही 'सत्य' है, ऐसा मानने की ही आवश्यकता है ? सत् कारणवाद से ही तो अद्वैत वेदान्त उत्पन्न हो गया । परिणाम भी उतना ही सत्य है, जितना कि कारण । फिर उस परिणाम मे कुछ मानसिक अश क्यो न हो । मेरी दृष्टि से भारत के अधिकाश दर्शनो ने विश्व का इस प्रकार का स्वरूप मान लिया था। अत. उसके सामने पाश्चात्य 'Nave Realism' के सामने जिस प्रकार के प्रश्न उत्पन्न हो जाते है, उस प्रकार के प्रश्न कभी उत्पन्न ही नहीं हुए। जिस प्रकार मार्क्सवाद Matter को सत्य मानता है, लेकिन साथ-साथ समाज को भी सत्य मानता है, Mattei से ही समाज निर्माण हो गया, ऐसा मानता है। उसी प्रकार ज्ञातृ-निरपेक्ष 'कण' को या 'तन्मात्र' को सत्य मानने के बाद भी न्याय, वैशेपिक या साख्य जैसे दर्शन पदार्थ को या पञ्चमहाभूतो को सत्य मान सकते है। ऐसा मानना विज्ञानवाद नही किन्तु यथार्थवाद का यथार्थवादी स्वरूप समझना है विश्व का कुछ अश ज्ञातृनिरपेक्ष है, यह समझना सच्चे यथार्थवाद का तत्व है। विश्व को इस प्रकार ज्ञातृस्वतन्त्र होने से ही विश्व मे व्यवहार हो सकता है । और विश्व केवल मानसिक और वैयक्तिक खेल नही रहता । विश्व मे दो या अनेक व्यक्तियो मे व्यवहार होता है, यही मेरी दृष्टि से इस प्रकार यथार्थवाद के सिद्धान्त का सबसे बड़ा गमक है। विश्व का स्वरूप एव प्रकार यथार्थवादी होने से ही समाज, शासन, शास्त्र, विद्या और कला उत्पन्न हो सकते है । जब यह ससार केवल मृगजल या स्वप्न है, ऐसी पूरे समाज की धारणा हो जाती है, तब समाज की अवनति शुरू होती है कम से कम उसको मानसिक पार्श्वभूमि निर्माण हो जाती है । ग्यारहवी शताब्दी से हमारी जो अवनति शुरू हो गई, उसका केवल इतना ही कारण है, ऐसा यद्यपि मैं नही मानूंगा, तथापि ससार को 'असार', 'असत्य', 'अजात' ओर केवल मनोनिर्मित या विज्ञान का खेल मानना, यह उस अवनति का सबसे बड़ा कारण है, ऐसा मै समझता है । अवनति की पार्श्वभूमि उत्पन्न होने के बाद अवनति को देर नहीं लगती। धर्म की, ईश्वर की, या वेद-प्रामाण्य की कल्पना यथार्थवाद की विरोधी नही है । जगत्, ससार 'असत्य है, यही एक कल्पना यथार्थवाद की विरोधी है । जगत् मिथ्या है, यह कल्पना भी सचमुच यथार्थवाद की विरोधी नहीं है । जब मिथ्या असत्य का दूसरा नाम हो जाता है, तभी जगत् मिथ्यावाद यथार्थवाद का विरोधी तत्व बनता है । और यह कल्पना कि ससार मेरे विकार जैसी मेरी कृति है, और वह मुझ पर अस्तित्व के लिए अवलम्बित है, इस प्रकार के दृष्टिकोण से पैदा होती है । "आप मर गए, इन गई दुनियाँ”—यह तत्व स्वीकार करने के बाद सामान्य मानव संसार से निवृत होगा या पूरा स्वार्थी २०४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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