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________________ यथार्थवाद और भारतीय दर्शन निष्कर्ष मैं नहीं कर सकता। भारतीय दर्शन यथार्थवाद विरोधी नहीं है, यह बात कला-स्वरूप के दृष्टान्त से और स्पष्ट हो जाएगी। 'यथार्थवादी' शब्द का साहित्य और कला मे भी प्रयोग होता है। किन्तु दर्शनशास्त्र का यथार्थवाद और कला का यथार्थवाद, इनके तादृश सम्बन्ध नहीं है । सृष्टि और समाज को सत्य मानकर जब उसका "जैसे का तैसा" चित्रण कलाकार कला मे करता है, तब उस कला को यथार्थवादी कला कहते है। यथार्थवादी कला कोई खास आदर्श अपने सामने नहीं रखती । फिर भी-"जैसे के तैसे चित्रण" मे यथार्थवादी कला मे, क्या कलाकार का कर्तृत्व कुछ भी नहीं ? वास्तविक अनुभव का सस्करण करके, उसको स्फुटित करके उनके परमाणुओ का फिर से नया सश्लेपण क्या कलाकार नहीं करता ? याद ऐसा नहीं होता, तो यथार्थवादी कथा और चरित्र मे भेद नहीं होता। एक दृष्टि से देखा जाए, तो सभी कला, फिर वह आदर्शवादी हो या यथार्थवादी-"शशशृग" या 'वन्ध्या-पुत्र' या 'रज्जुसर्प' की तरह ही होती है। किन्तु शशभृग और वन्च्यापुत्र या रज्जुसर्प असत्य होने पर भी शश, शृग, वन्ध्या, पुत्र, रज्जु और सर्प, ये वस्तुएं असत्य नही होती । दिक्काल-सापेक्ष सृष्टि मे बिखरे हुए सृष्टिकण को इकट्ठा करके ही असत् की या कला की निर्मिति हो सकती है । कोई भी असत् सत् के अधिष्ठान पर ही जीता है। हम जब यथार्थवादी साहित्य की बात करते है, तब हम यह चीज मान लेते है कि एक दृष्टि से मनुष्य-निर्मिति होने के बाद भी साहित्य मे मानव-निरपेक्ष सत्य का अश होता है। वैसे ही दर्शन-शास्त्र मे ज्ञातृसापेक्ष सृष्टि का अधिष्ठान ज्ञातृनिरपेक्ष सृष्टि पर ही होना चाहिए । अत किसी भी दर्शनशास्त्र की मूल सृष्टि ज्ञातृनिरपेक्ष ही माननी चाहिए, ऐसा मैं समझता हूँ। मैं जानता हूँ कि अपनी विचारधारा मैंने सप्रमाण सिद्ध नही की । उस पर कई आक्षेप किए जा सकते है । लेकिन अपनी विचारधारा को सप्रमाण सिद्ध करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है । अपनी विचारधारा का निष्कर्ष प्रस्तुत करना इतना ही प्रस्तुत लेख का विषय है। तात्पर्य यह कि विज्ञानवादी दर्शन मानना मैं आवश्यक नहीं समझता । भारतीय दर्शन ने विज्ञानवाद का ही अवलम्ब लिया है, ऐसा भी मै नही समझता । यथार्थवाद का विचार करते समय बालिश यथार्थवाद (Naave Realism) को विचार धारा को स्वीकार करना भी अत्यन्त कठिन समस्या है, यह जानना चाहिए। विश्व के दो यथार्थवादी भी ऐसे यथार्थवाद का स्वरूप निश्चित करने मे सहमत नहीं होगे। ऐसा स्वरूप निश्चित करना यथार्थवादी दृष्टिकोण के विरुद्ध है। किन्तु अनुभव की सृष्टि की सभी वस्तुओ को सत्य मानना, यह भी यथार्थवाद के उतने ही विरोध मे है, जितने सभी असत्य है। वोनो का परिणाम एक ही है । विज्ञानवाद वन्ध्यापुत्र, या Square Circle ऐसी कल्पना हम करते है, इसीलिए उन्हे कही तो सत्य होना चाहिए, यही तो Platonism का प्रमुख सिद्धान्त है। सत्य और असत्य का नीरक्षीर विवेक करने जाएँ, तो यथार्थवाद के सामने एक पेचीदा प्रसग उत्पन्न हो जाता है । ऐसा पेचीदा प्रसग निर्माण करना, यही विज्ञानवाद का सबसे बडा शस्त्र है। वस्तु के या विश्व के स्वरूप का जब हम निर्णय करने जाते है, हमारे सामने अन्तविरोध पैदा हो जाते है कि हम सोचने लगते है कि यथार्थवाद सत्य नही है। किन्तु क्या ये अन्तविरोध या अवलम्बन करने से मिट जाते है ? अतः २०३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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