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________________ गुरुदेव श्री रत्ल मुनि स्मृति-प्रन्य ने, मामान्यत विश्व के बारे म सामान्य जन का जिम प्रकार दृष्टिकोण रहता है-( और उमम भी कई विरोधी मत एक जगह रह सकते हैं) उम प्रकार का दृष्टिकोण नही रखा है। आधुनिक इतिहास में अनुभववादी 'लॉक' की परिणति ह्य म मे हुई और बुद्धिवादी 'डेकार्ट' की परिणनि 'म्पायनोजा' और 'लायनिज' में हुई । इस परिणाम मे यह स्पष्ट होता है कि बुद्धि या अनुभव को प्रमाण मानने पर भीयथार्थवाद का पूर्णतया अवलम्ब कोई भी नहीं कर सका। वीमवी शताब्दी मे Common scense Icalist, Realist और Critical Realist पैदा हुए। किन्तु उनके तत्त्व ज्ञान के आलोडन में यह माफ होता है कि सामान्य जन की कल्पना मे उनकी जगत् के स्वरूप की कल्पना बहुत दूर है । ये विज्ञानवादी नही, इतना ही उनके बारे मे कह मकने है। मार्क्सवाद के तत्वज्ञान को कभी-कभी Realist तत्वज्ञान कहते है, किन्तु समाज, जगत् इत्यादि मार्क्सवाद के लिए गृहीत प्रमेय है। गृहीत प्रमेय का स्वरूप ढढने का मार्क्सवाद सामान्य दृष्टि में प्रयल नहीं करता। मार्क्सवाद को यदि Realism का सिद्धान्त समझना है तो कोई भी अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र या डात्रिन जैसे जीवशास्त्रज का सिद्धान्त भी Realism का सिद्धान्त बनकर रहेगा। वस्तुस्थिति यह है कि विश्व को आज मामान्यत कोई 'अमत्' 'अजात' ऐसा नही मानता । किन्तु Realism जैसे प्रश्न की चर्चा भी आज प्राय नही होती । तत्वज्ञान मे या दर्शनशास्त्र मे आज अन्य प्रश्नो की चर्चा की जाती है। इस दृष्टि में भी इस ममय भारतीय दर्शन मे यथार्थवाद का सगोधन करना एक दृष्टि मे अनावश्यक मा मालूम हो सकता है । मेरी दृष्टि में प्राचीन काल में भारतीय दर्शनी का विभाजन यथार्थवाद और अयथार्थवाद, इम तत्त्व पर नहीं हुआ। भारतीय दर्शनो के मामने बहुत भिन्न प्रश्न थे-व्याकरण, वैशेपिक, न्याय या साख्य दर्शन से यह वात स्पष्ट हो जाती है। पूर्व मीमामा-कर्मकाण्ड का पुरस्कार करने वाले इस दर्शन का स्वरूप भी मूल मे यथार्थवादी-अयथार्थवादी इस प्रकार के मानदण्ड से तौल नहीं सकते। जैसे कोई वस्तु मन से स्वतन्त्र जैसे अस्तित्व मे रह सकती है, वैसे ही कोई वस्तु मन के मयोग से भी रह मकती है । वैगेपिको का 'पदार्य' का सिद्धान्त, या मास्य का तन्मात्र और महाभूत का सम्बन्ध या व्याकरणणास्त्र का नाम, विशेपण, क्रियापद आदि भेद, यह मेरी दृष्टि में इसके द्योतक है कि भारतीय दर्शनो मे मूल में 'यथार्थवाद' जैसा प्रश्न ही नहीं था। भारतीय दर्शन मे यथार्थवाद जैसा प्रश्न प्रारम्भ में उत्पन्न नहीं हुआ। वौद्ध तत्वज्ञान के एक उपदर्भन ने विज्ञानवाद का सिद्धान्त पेश किया। इम सिद्धान्त की परिणति प्रथम माध्यमिक सिद्धान्त में हुई । और पश्चात् शकराचार्य के विवर्तवाद या मायावाद द्वारा बौद्ध विज्ञानवाद के बहुताश का ग्रहण करने से, विज्ञानवाद का धर्म जैसा प्रचार भारत में हुआ। ऐसे प्रचार मे आद्य शकराचार्य का हिस्सा कितना है, यह मैं नहीं कह सकता । ( इतना ही नहीं, एक प्रकरण में शकराचार्य ने जगत् के यथार्थवाद का Defence भी दिया है। (वॉन युनिवर्सिटी के प्राध्यापक डा. पॉल हकर का यह मत है कि जगन्मिथ्यावादी शकर-तत्वज्ञान का प्रचार विद्यारण्य के समय हुआ ) · मूलत मिथ्या शब्द का असार यह अर्थ नही है। किन्तु शकराचार्य के वाद यह अर्थ प्रसृत हुआ । और जगत असत् है यान वह वास्तव में नहीं है, यह कल्पना दृढमूल हुई। इस कल्पना के साथ जीव ब्रह्म की एक होने की कल्पना, और जगत् ब्रह्म के २००
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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