________________
यथार्थवाद और भारतीय दर्शन
एकत्व की कल्पना इतनी पक्को हो गई कि रामानुज, मध्व और अभिनवगुप्त जगत् का सत्यत्व मानने के बाद भी एक दृष्टि से विज्ञानवाद के, कर्मकाण्ड के या तन्त्र के उपासक बने रहे।
शकराचार्य और उनके अद्वैतवाद का इतना प्रभाव भारत मे पड़ा कि यद्यपि शकराचार्य के बाद घट, पट आदि वस्तु के सत्यत्व की चर्चा न्यायशास्त्र ने जारी रक्खी, फिर भी वह केवल एक प्रकार की प्राधिक चर्चा रही । अद्वैत वेदान्त मे, साख्य, योग, मीमासा और न्याय, इनको एक प्रकार-मेरी दृष्टि मे गैर प्रकार-सम्मिलित किया गया । इस प्रकार का सबसे अच्छा उदाहरण श्रीमद्भगवद्गीता मे पाया जाता है, जो कि हिन्दू धर्म का आज एक प्रधान ग्रन्थ है।
__ यथार्थवाद का अर्थ अ-विज्ञानवाद जैसा लेना चाहिए, यह मैंने कहा। किन्तु आज का मूलविज्ञानवाद मूल स्वरूप में केवल प्रथो मे ही दिखाई देता है। मूल विज्ञानवाद से मुझको बौद्ध दर्शन का योगाचार और माध्यमिकवाद अभिप्रेत है। किन्तु मूल-विज्ञानवाद के हिन्दुस्तान मे नष्ट होने के बाद भी विज्ञानवाद की जडे भारत मे पक्की हो गई, और उसने उत्तर मीमासा दर्शन को ग्रस लिया । अद्वैत दर्शन का मायावाद, दृष्टि-सृष्टिवाद, या अजातवाद-ये विज्ञानवाद के ही तीन रूप है । (मूल उत्तर मीमासा शास्त्र या उपनिषद् अथ विज्ञानवादी है या नही, इसमे मुझ को बहुत सन्देह है। इतना ही नहीं, वे विज्ञानवादी नहीं है, ऐसी मेरी भावना है।) अद्वैत दर्शन का यह परिणाम होने से अद्वैतवाद और विज्ञानवाद सामान्य जनो के लिए समानार्थी हो गए। और अद्वैत का, या अद्वैत-विचारधारा का सबसे बडा असर जनता पर होने से, और अद्वैत के धर्म का स्वरूप धारण करने से उत्तर मीमासा, उपनिषद् और गीता यानी अद्वत, यह समीकरण हो गया । सामान्य लोगो के लिए यथार्थवाद या विज्ञानवाद, यह सचमुच महत्वपूर्ण वस्तु नही है । अपना सारा जीवन स्वार्थ मे व्यतीत करते हुए भी मनुष्य ससार को असार मान सकता है । और ससार को असार मानना सामान्य मनुष्य के लिए वेदान्ती और विज्ञानवादी सिद्धान्त मे श्रद्धा रखने के लिए काफी है । 'असार' से 'अजात' या 'असत्' यह केवल एक और कदम है । अत ससार को असार मानने वाले मनुष्य का विज्ञानवाद का अनुयायी बनना बहुत सीधी-सी बात है। वेद-प्रामाण्य, धर्म पर श्रद्धा, जगत् मे दुख का अनुभव, ईश्वर-शरण्यता आदि सभी घटक भारतीय मनुष्य को वेदान्ती बनाने के लिए कारण हुए। और सामान्य मनुष्य के लिए 'विष्णु' और 'कृष्ण' या 'विष्णु और 'शकर' जैसे देवता जिस प्रकार एक ही है, वैसे सब वेदान्त भी एक ही है। भारतीय दशन अयथार्थवादी है, ऐसा समझे जाने का कारण इस प्रकार है।
किन्तु वेद-प्रामाण्य, धर्म-श्रद्धा, जगत् मे दुख का अनुभव, ईश्वर-शरण्यता आदि घटक यथार्थवादी के विरोधी नहीं है। अश मे या पूर्ण मे यह घटक मानने के बाद भी मनुष्य बाह्य जगत् को सत्य मान सकता है । वैसे देखा जाए, तो वेद-प्रामाण्यादि विज्ञानवाद के ही विरोध मे है । अद्वैत वेदान्त के दृष्टिकोण से, ईश्वर का, (जगत् के कर्ता का) भी अस्तित्व नही मान सकते । किन्तु यह भारतीय तत्त्वज्ञान के इतिहास की घटना है, कि यह सब घटक जगन्मिथ्यावाद की पूर्ति के लिए काम मे लाए गए।
इस दृष्टि से भी सभी भारतीय दर्शन विश्व का सत्य स्वरूप जानने की इसलिए इच्छा करते है कि
२०१