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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति ग्रन्थ हालत से घडे की आकृति मे आया, घडा फूटकर खपरियाँ बनी, खपरिया चूर्ण होकर खेत मे जा पडी ? उसके कुछ परमाणु गेहूँ बने। इस तरह अवस्थामओ मे परिवर्तन होते हुए भी मूल अणुत्व का नाश नहीं हुमा । यही परिणाम जैनियो के प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप है। गीता का यह सिद्धान्त- नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।" अर्थात असत् का उत्पाद नही और सत् का सर्वथा अभाव नहीं होता। इसी परिणामवाद को सूचित करता है। जगत् मे कोई नया द्रव्य उत्पन्न नहीं होता। जितने द्रव्य है, उनमे से एक अणु का भी सर्वथा विनाश नहीं होता। उनकी अवस्थाओ मे परिवर्तन होते रहते है, एक दूसरे के सयोग से विचित्र प्रकार के भौतिक-अभौतिक परिवर्तन हमारी दृष्टि से छिपे नही हैं । इस तरह उत्पाद, व्यय एव ध्रौव्यवाद या परिणामवाद जनताकिको को प्रारम्भ से ही इप्ट रहा है, और इसी का द्रव्यपर्यायवाद, गुणपर्यायवाद आदि नामो से प्रत्येक ग्रन्थ मे उत्कट समर्थन है। नय-दृष्टि मे पर्यायदृष्टि से बौद्धो के क्षणिकवाद का तथा द्रव्य दृष्टि से साख्यो के कूटस्थनिन्यवाद तक का समन्वय जैनाचार्यों ने किया है । यहा तक कि चार्वाक मत का भी सग्रह किया गया है। साराश यह है, कि जैनाचार्यों ने यद्यपि परपक्ष का खडन किया है, फिर भी उनमे समन्वय की अहिंसा और उदारता बराबर जागृत रही, जो भारत के अन्य दार्शनिको मे कम देखी जाती है। इसी समन्वय-शालिता के कारण उन्होने नयष्टि या स्याद्वाद के द्वारा प्रत्येक मत का समन्वय कर, अपनी विशाल-दृष्टि तथा तटस्थता का परिचय दिया है। मूलत जैन परम्परा आचार प्रधान है। इसमे तत्वज्ञान का उपयोग भी आचार शुद्धि के लिए ही है। यही कारण है कि तर्कशास्त्र जैसे शास्त्र का उपयोग भी जैनाचार्यों ने समन्वय और समता के स्थापन मे किया। इसका अनेकान्तवाद या स्याद्वाद, मति-सहिप्णता की ही प्रेरणा देता है। दार्शनिक कटाकटी के युग मे भी इस प्रकार की समता उदारता तथा एकता के लिए प्रयोजन समन्वय-दृष्टि का कायम रखना अहिंसा के पुजारियो का ही कार्य रहा है । इस स्याद्वाद के स्वरूप-निरूपण तथा प्रयोग करने के प्रकारो का विवेचन करने के लिए भी जैनाचार्यों ने अनेक ग्रन्थ लिखे है। इस तरह दार्शनिक एकता स्थापित करने मे जैनदर्शन का अद्भुत और स्थायी प्रयत्ल रहा है। इस जैसी उदार-सूक्तियां अन्यत्र कम मिलती है । यथा "भवबीजाइकुर-जनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।" अर्थात् जिसके ससार को पुष्ट करने वाले रागादि दोष विनष्ट हो गए है, चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन, उसे नमस्कार हो । "पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥" अर्थात् मुझे महावीर से राग नही है और न कपिल आदि से द्वेष है। जिसके भी युक्ति-युक्त वचन हो, उनको ग्रहण करना चाहिए। १९२
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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