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________________ जैन-दर्शन का इतिहास और विकास वृहत्काय टीका ग्रन्थो का निर्माण किया । शान्तिसूरि ने जनतर्कवातिक, अभयदेव ने सन्मतितर्क टीका, जिनेश्वरसूरि का प्रमाण-लक्षण, हेमचन्द्रसूरि की प्रमाण-मीमासा, वादिदेवसूरि का प्रमाण नयतत्त्वालोकालकार और स्याद्वादरलाकार, और मुनिचन्द्रसूरि का अनेकान्तजयपताका-टिप्पण आदि ग्रन्थ इसी युग की कृतियां है । तेरहवी शताब्दी मे मलयगिरि आचार्य एक समर्थ टीकाकार हुए । इनके टीका ग्रन्थो मे दार्शनिकता की अद्भुत छाप है। इसी तरह प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य, जिनेश्वरसूरि, रत्नप्रभसूरि, गुणरत्नसूरि, मल्लिषेणसूरि आदि आचार्यों ने प्रचुर प्रथराशि का निर्माण कर भारतीय भण्डार मे अपनी पूजी जमा की है । धर्मभूषणयति ने न्यायदीपिका रची। अन्त मे १८ वी सदी के उपाध्याय यशोविजय जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इन्होने नव्यन्याय की परिष्कृत शैली मे अनेक ग्रन्थो का निर्माण किया, और उस युग तक के विचारो का समन्वय तथा जैन परिभाषाओ को नव्य ढग से परिष्कृत करने का आद्य प्रयल किया है। विमलदास की "सप्तभगिनीतरगिणी" सप्तभगी का प्रतिपादन करने वाली अकेली और अनूठी रचना है। इस प्रकार जनतार्किको के जैन-दर्शन ने विकास मे जो भगीरथ प्रयत्न किए है, उनकी पक झलक दिखाने का मैंने यह एक लघु प्रयल किया है। ज्ञेय-तत्व जैन दर्शन मे प्रमेयतत्त्व छह है१ जीव २ पुद्गल ३ धर्म ४ अधर्म ५ आकाश ६ काल जीव अनन्त है । ज्ञान, दर्शन और सुख आदि उसके स्वभावभूत गुण है, यह मध्यम परिमाण वाला या शरीर परिमाण वाला है, कर्ता है एव भोक्ता है। रूप, रस, गघ तथा स्पर्श वाले सभी पदार्थ पुद्गल हैं । ये पुद्गल अणुरूप है, अनन्त हैं । जीव और पुद्गल की गति का माध्यम धर्मद्रव्य तथा स्थिति का माध्यम अधर्मद्रव्य होता है । ये लोकपरिमाण हैं, एक-एक द्रव्य है, अमूर्तिक है । आकाश अनन्त है, अमूर्तिक है। काल अणुरूप असख्यात द्रव्य है। श्वेताम्बर परम्परा मे कुछ आचार्य कालद्रव्य को नही मानते । इस तरह प्रमेय तत्त्वो का प्रारम्भ से ही एक जैसा निरुपण सभी दार्शनिक ग्रन्थो मे है। जैन लोग महावीर की आद्य उपदेश वाणी "उपन्लेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा।" के अनुसार प्रत्येक द्रव्य मे पर्याय-अवस्था की दृष्टि से उत्पादन और व्यय तथा द्रव्यमूल अस्तित्व की दृष्टि से धौव्य स्वीकार करते हैं। जो भी सत् है, वह परिवर्तनशील है, परिवर्तनशील होने पर भी वह अपनी मौलिकता नही खोता, अपना द्रव्यत्व कायम रखता है। जैसे एक पुद्गल मिट्टी के पिंड की
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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