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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्य
धर्मकीर्ति तथा उनकी शिप्यमडली ने प्रवल तर्कवल से वैदिक दर्शनो पर प्रचड प्रहार किए। जैन दर्शन पर भी आक्षेप किए जाते थे। यद्यपि अनेक मुद्दो मे जनदर्शन और बौद्ध दर्शन समानतन्त्रीय थे । परन्तु क्षणिकवाद, नरात्म्यवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि वौद्धवादो का दृष्टिकोण ऐकान्तिक होने के कारण जैनदर्शनो मे इनका उसी प्रवलता के साथ विशद खडन किया गया है। धर्मकीर्ति की मंडली के आक्षेपो के उद्धारार्थ इसी समय प्रभाकर व्योमशिव, मडनमिश्र, शकराचार्य, भट्टजयन्त, वाचस्पति मित्र, शालिकनाथ आदि वैदिक दार्शनिको का प्रादुर्भाव हुआ। इन्होने वैदिक दर्शनो के संरक्षणार्य अच्छे प्रयल किए। इसी सघर्ष युग मे जैन न्याय के प्रस्थापक दो महान आचार्य हुए। वे हैं-अकलक और हरिभद्र । अकलक और हरिभद्र के बौद्धो से जम कर शास्त्रार्य हुए । इनके अन्यो का बहुभाग बौद्ध दर्शन के खंडन से भरा हुआ है। धर्मकोति के प्रमाणवार्तिक का खडन अकलंक के सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, अष्टशती आदि प्रकरणो मे पाया जाता है। हरिभद्र की 'भनेकान्त-जय-पताका' और 'अनेकान्त-वाद-प्रवेश इसके लिए खास द्रष्टव्य हैं । एक वात विशेष ध्यान देने योग्य है, कि जहां वैदिक दर्शनी के ग्रन्यो मे इतर मतो का मात्र खडन ही खडन है, वहाँ जैन दर्शन के ग्रन्थो मे इतर मतो नय और स्यावाद दृष्टि से विशिष्ट समन्वय भी किया गया है। इस तरह मानस-हिमा की उस उदारदृष्टि का परिपोषण किया गया है।
समन्तभद्र की 'आप्त-मीमासा' हरिभद्र के 'शास्त्र-वार्तासमुच्चय' 'पड्दर्शन-समुच्चय और धर्म सग्रहणी आदि इमके विशिष्ट उदाहरण है । अक्लकदेव ने अपने लघीयस्त्रय आदि प्रकरणो मे जैन न्याय की रूप रेखाएं वाँधकर उसकी हदबन्दी करने का स्थिर प्रयत्न किया है। यहां यह लिखना अप्रासागिक न होगा, कि चार्वाक, नैयायिक, वैशेषिक, सास्य, एव मीमासक आदि मतो के खडन मे धर्मकीति ने जो अथक श्रम करके एक मार्ग दर्शन किया, उससे इन आचार्यों का उक्त मतो के खडन का कार्य बहुत कुछ सरल बन गया था।
जब धर्मकीर्ति के शिप्य देवेन्द्रमति, प्रज्ञाकरगुप्त, कर्णकगोमि, शान्तरक्षित, अचंट आदि अपने प्रमाणवातिक-टीका, प्रमाण-वातिकालकार, प्रमाणवातिक स्ववृत्तिटीका,तत्त्व सग्रह, वाद-न्यायटीका,हेतुविन्दुटोका आदि ग्रन्थ रच चुके, और इनमे कुमारिल्ल, ईश्वरसेन, मडनमिश्र आदि के मतो का खडन कर चुके और वाचस्पति मिश्र, जयन्त आदि उस खण्डोद्धार के कार्य में व्यस्त थे, इसी युग मे जैन दार्शनिक अनन्तवीर्य ने भी बौद्ध दर्शन के खडन मे अपनी सिद्धि-विनिश्चय टीका बनाई। विद्यानन्दि ने तत्त्वार्यश्लोक वार्तिक अष्ट सहस्री, आप्त-परीक्षा, पत्र-परीक्षा, सत्यशासन-परीक्षा जैसे जैन न्याय के मूर्धन्य ग्रन्थ बना कर, अपने नाम को सार्थक किया । इसी समय उदयनाचार्य, भट्ट श्रीधर आदि वैदिक दार्शनिको ने वाचस्पति मिश्र के अवशिष्ट कार्य को पूरा किया। यह युग विक्रम की ८ वी और नवी सदी का युग था। इसी समय माणिक्यनन्दि आचार्य ने परीक्षामुख सूत्रो मे अकलकन्याय का संग्रह किया।
वि० १० वी सदी सिद्धपिसूरि ने न्यायावतार पर टीका रची।
वि० ११-१२ वी सदी का युग जैनदर्शन का एक प्रकार से मध्याहनोत्तर युग समझना चाहिए। इसमे वादिराज सूरि ने न्यायविनिश्चयविवरण, प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे