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जैन-दर्शन का इतिहास और विकास
सद्रूप से वर्णन करने का प्रयत्न करता है, और देखता है कि उसकी दूसरी बाजू अभी वर्णन मे नही आई, तब उसका असद्प से विवेचन करता है। पर जब वह देखता है कि सद् और असत् जैसे अनन्त विरोधी धर्मों की लहरे वस्तु के असीम समुद्र मे लहरा रही है, जिन्हे एक साथ वर्णन करना वचनो की शक्ति के बाहर है, तो वह कह उठता है "यतो वाचो निवर्तन्ते" । इस तरह वस्तु का परिपूर्ण रूप अवक्तव्य है, उसका एक-एक रूप से आशिक वर्णन होता है। जैन-दर्शन मे अवक्तव्य को भी एक दृष्टि माना है, जिस प्रकार वक्तव्य को।
आचार्य कुन्दकुन्द के पचास्तिकाय मे सर्व प्रथम सत्, असत् और अवक्तव्य के सयोग के बनने वाले सात भगो का उल्लेख है । इसे सप्तभगी-नय कहते है। स्वामी समन्तभद्र की आप्तमीमासा मे इसी सप्तभगी का अनेक दृष्टियो से विवेचन है । उसमे सत्, असत् एक, अनेक, नित्य, अनित्य, द्वैत, अद्वैत, देव और पुरुषार्थ आदि अनेक दृष्टिकोणो का जैन-दृष्टि से सुन्दर समन्वय किया है। सिद्धसेन के सन्मतितर्क मे अनेकान्त और नय का विशद वर्णन है। इन युग प्रधान आचार्यों ने उपलब्ध समस्त जैनेतर दृप्टियो का नय या स्याद्वाद दृष्टि से वस्तुस्पर्शी समन्वय किया। देव और पुरुषार्थ का जो विवाद उस समय दृढमूल था, उसके विषय मे स्वामी समन्तभद्र ने आप्त-मीमासा (७ वा परिच्छेद) में हृदयग्राही सापेक्ष विवेचन किया है । उन्होने लिखा है कि कोई भी कार्य न केवल देव से होता है और न केवल पुरुपार्थ से। दोनो रस्सियो से दधि-मयन होता है । हाँ, जहाँ बुद्धिपूर्वक प्रयल के अभाव मे फल-प्राप्ति हो, वहाँ देव को प्रधान मानना चाहिए तथा पुरुषार्थ को गौण तथा जहाँ वुद्धिपूर्वक प्रयत्न से कार्यमिद्ध हो, वहा पुस्पार्थ प्रधान तथा देव गौण । किमी एक का निराकरण नही किया जा सकता, इन मे गौणमुख्य भाव है। इस तरह सिद्धसेन और समन्तभद्र के युग मे नय, सप्तभगी, अनेकान्त आदि जैनदर्शन के आधारभूत पदार्थों का सागोपाग विवेचन हुआ। इन्होने उस समय के प्रचलित सभी वादो का नय-दृष्टि से जैन दर्शन मे समन्वय किया । और सभी वादियो मे परस्पर विचार सहिप्णुता और समता लाने का प्रयत्न किया। इसी युग मे न्यायभाप्य, योगभाप्य, शावरभाष्य आदि भाष्य रचे गए है। यह युग भारतीय तर्क शास्त्र के विकास का प्रारम्भयुग था। इसमे सभी दर्शन अपनी अपनी तैयारियां कर रहे थे । अपने तर्कशास्त्र रूपी शस्त्र पैना कर रहे थे। सबसे पहला आक्रमण बौद्धो की ओर से हुआ, जिसमे मुख्य सेनापति का कार्य आचार्य दिइनाग ने किया। इसी समय वैदिक दार्शनिक परम्परा मे न्यायवातिककार उद्योतकर, मीमासा श्लोकवार्तिककार कुमारिलभट्ट आदि हुए। इन्होने वैदिकदर्शन के सरक्षण मे पर्याप्त प्रयत्न किया । इसके बाद (वि० ६वी सदी) पूज्यवाद ने सर्वार्थसिद्धि तथा मल्लवादी ने नय-चक्र नामक महान् आकर ग्रन्थ बनाए । नय-चक्र मे नय के विविध भगो द्वारा जैनेतर दृष्टियो के समन्वय का सफल प्रयत्न हुआ। यह प्रथ आज मूलरूप मे उपलब्ध नहीं है । इसकी सिहगणि क्षमाश्रमण की टीका मिलती है। इसी युग मे सुमति, श्रीदत्त, पात्रस्वामी आदि आचार्यों ने जैन न्याय के विविध अगो मे स्वतन्त्र तथा व्याख्यारूप ग्रन्थो का निर्माण किया।
वि० ७ वी सदी दर्शनशास्त्र के इतिहास मे विप्लव का युग था। इस समय नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्य धर्मपाल के शिष्य धर्मकीर्ति का सपरिवार उदय हुआ। शास्त्रार्थों की धूम थी।