________________
गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम इन पाच को स्थान दिया। इस तरह प्रमाण-शास्त्र की व्यवस्थित रूपरेखा यहाँ से प्रारम्भ होती है।
अनुयोगद्वार, स्थानाग, और भगवतीसूत्र में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, और आगम इन चार प्रमाणो का निर्देश है । यह परम्परा न्यायसूत्र की है। पर तत्त्वार्थधिगमभाप्य मे इस परम्परा को 'नयवादान्तरेण' कह कर जैन परम्परा के रूप मे स्पष्ट स्वीकार नही किया है, और न उत्तराकालीन किसी जैनतर्कग्रन्थ मे इसका कुछ भी विवरण या निर्देश ही है। समस्त उत्तराकालीन जैनदार्शनिको ने अकलकदेव द्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाण पद्धति को पल्लवित और पुप्पित करके जनन्यायाराम को सुवासित किया है।
उपायतत्व
उपायतत्व में महत्वपूर्ण स्थान नय तथा स्याद्वाद का है । नय एक जैन पारिभाषिक शब्द है, जो सापेक्ष दृष्टि का नामान्तर है । स्याद्वाद, भापा का वह निर्दोप प्रकार है, जिसके द्वारा वस्तु के परिपूर्ण या यथार्थरूम के अधिक से अधिक समीप पहुंचा जा सकता है। मैं पहले लिख आया हूँ कि भगवान् महावीर ने वस्तु के अनन्त धर्मात्मक विराट्रप के दर्शन किए और उन्हें उस समय के प्रचलित सभी सद्वाद और असद्वाद या अनिर्वचनीय आदि वाद वस्तु के एक-एक अश को स्पर्श करने वाले प्रतीत हुए । यहाँ तक तो ठीक था, पर जब महावीर ने उन वादियो को अपने-अपने वाद की सत्यता को चौराहो पर उद्घोषणा कर दूसरो का प्रतिक्षेप करते देखा, तो उनका तत्त्वद्रप्टा हिसक हृदय इस अज्ञान एव हिंसा से मनुकपित हुआ। उन्होने उन सब के लिए वस्तु के विराटस्वरूप का निरूपण किया। कहा देखो, वस्तु के अनन्तधर्म है, लोगो का ज्ञान स्वल्प है, वह वस्तु के अश को स्पर्श करता है, अपने दृष्टिकोण को ही सत्य मान कर या अपने ज्ञान पल्लव मे वस्तु के अनन्त रूप को समाया समझकर दूसरे वादी के दृष्टिकोण का प्रतिक्षेप करना मिथ्यात्व है। उसका भी दृष्टिकोण वस्तु के दूसरे अश को स्पर्श करता है । अत अपनी अपनी दृष्टि मे पूर्णसत्य का मिथ्या अहकार करके दूसरो के प्रति असत्यता का आरोप करके उनसे हिंसक व्यवहार करना, तत्वज्ञो का कार्य नहीं है । उसके स्वरूप का वर्णन करने वाली प्रत्येक दृष्टि नय है, वह अपने में उतनी ही सत्य है, जितनी उसकी विरुद्ध दृष्टि । शर्त यह है कि कोई भी दृष्टि दूसरी दृष्टि का प्रतिक्षेप न करे, उसके प्रति सापेक्ष भाव रक्खे । यह नयदृष्टि विचार का निर्दोप प्रकार है, तथा स्याद्वाद भाषा की समता का प्रतीक है। स्याद्वाद मे "स्यात्" शब्द एक "निश्चित दृष्टिकोण" का प्रतिपादन करता है, अर्थात् अमुक निश्चित दृष्टिकोण से वस्तु सत् है, अमुक निश्चित दृष्टिकोण से असत् । स्यात् को शायद का पर्यायवाची कहकर उसे दुलमुल यकीनी की कक्षा मे डालना, उसके ठीक स्वरूप के अज्ञान का फल है। मालूम होता है, शकराचार्य जी ने भी स्यात् और शायद को पर्यायवाची समझकर उसमे संशय दूषण देने का विफल प्रयास किया है। भगवती-सूत्र मे हम "सिया अस्थि, सिया णत्थि, सिया अवतव्व"-इन तीन भगो का निर्देश पाते है। अर्थात् वस्तु एक दृष्टिकोण से सत् है, दूसरे दृष्टिकोण से असत् तथा तीसरे दृष्टिकोण से अवक्तव्य । वस्तुतः मनुष्य एक विराट अखड अनन्त वस्तु को पहले
१८८