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जैन-दर्शन का इतिहास और विकास
भगवान् महावीर अहिंसा के उत्कट साधक थे। वे मातृहृदय बुद्ध की तरह मृदुमार्गी न होकर पितृचेतस्क दीर्घतपस्वी थे। अहिसा के कायिक, वाचिक तथा मानसिक स्वरूपो को आत्मसात् करना तथा सघ मे उनका ही जीवन्त रूप लाना उनका जीवन-कार्य था । विषय-कपाय ज्वालाओ से झुलसे हुए इस जगत् को सर्वागीण अहिसा द्वारा स्थायी शान्ति की ओर ले जाना, उनका जीवन-व्रत था । कायिक अहिंसा के लिए जिस प्रकार व्यक्तिगत सम्यक् प्रवृत्ति, अप्रमत्त आचरण की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार वाचनिक अहिसा के लिए वचन की अमुक शैली तथा मानसिक अहिंसा के लिए विचारसहिष्णुता एवं पदार्थ के विराट् स्वरूप के यथार्थ ज्ञान की विशेप आवश्यकता होती है। भगवान महावीर ने वस्तु के विराट्स्वरूप का अनुभव करके बताया कि अचेतन जगत् का प्रत्येक अणु तथा चेतन जगत् का हर एक आत्मा अनन्त धर्मवाला है । उसके पूर्ण रूप को पूर्णज्ञान ही जान सकता है। उसके अनन्त स्वरूप को हमारा क्षुद्र ज्ञानकण अशतः ही स्पर्श कर सकता है। उस समय प्रचलित सत्, असत् अवक्तव्य, क्रिया, अक्रिया, नियति, यदृच्छा, काल आदि वादो का उन्होने अपने पूर्ण ज्ञान से ठीक स्वरूप देखा और वस्तुस्थिति के आधार से विचार की उस मानस-अहिसा पोषणी दिशा की ओर ध्यान दिलाया, जिससे वस्तु के यथार्थ ज्ञान के साथ ही साथ चित्त मे समता और विचार-सहिष्णुता जैसे अहिंसा के अकुरो का आरोपण हो सकता था। उन्होने आत्मा, परलोक आदि के विषय मे प्रश्न होने पर मौनावलम्वन नहीं किया और न उन्हे अव्याकरणीय बताया, किन्तु उन पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का विवेचन किया। उन्होने अपनी पहली देशना मे "उपन्नइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा (स्थानाग-स्थान १०) इस त्रिपदी का उच्चारण किया था। यह मातृकात्रिपदी कही जाती है। इसका तात्पर्य है कि जगत् का प्रत्येक चेतन अचेतन पदार्थ उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और स्थिर भी रहता है। मूल अस्तित्व स्थिर रहता है, अवस्थाओ मे उत्पाद और विनाशरूप परिवर्तन होता रहता है । साख्य और योग परम्परा मे ऐसा परिणामवाद केवल अचेतन प्रकृतितत्व मे माना है । पुरुपतत्त्व इस परिणाम से सर्वथा अछूता कूटस्थ नित्य स्वीकार किया गया है।
भगवान् महावीर के उपदेशो का अतिम सग्रह देवर्षिगणि क्षमाश्रमण ने वि० स० ५१० मे किया था। ये आगम उस समय की लोक-भापा अर्धमागधी मे रचे हुए है । भगवान् महावीर और बुद्ध ने अपने उपदेश जनता की बोली मे ही दिए थे । आगमो की रचना शैली मे तर्क के स्थल-स्थल पर दर्शन होते है। महावीर के मुख्य गणधर गौतम स्वामी भगवान के हर एक उपदेशो मे तर्क करते है, "से केण→ण भन्ते एवमुच्चइ" अर्थात्-भगवन ऐसा क्यो कहते है। इस तर्क गर्ने प्रश्न के उत्तर में महावीर अपने द्वारा उपदिष्ट मार्ग की सत्यता तथा प्रमाणिकता को युक्तियो से सिद्ध करते है।
इस तरह आगमो मे जैनदर्शन के वीज बिखरे हुए है । उनका सस्कृत भापा मे सर्वप्रथम सग्रह आ० उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र मे किया । तत्त्वार्थ सूत्र के "प्रमाणनयंरधिगमः"१ 'उत्पादव्ययप्रौव्य
तक सू०१६
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