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पूर्व इतिवृत्त
साथियो को साथ मे लेकर राज्य से निकल पडे और वगावत का झडा वुलन्द कर दिया। इधर-उधर लूटमार का वाजार गर्म हो गया। उस युग के सेठ साहूकार, और तो क्या, बड़े बड़े राजा महाराजा भी प्रभव के जादूभरे भयकर आक्रमण से आतकित रहते थे । घूमता-घामता प्रभव मगध मे मा पहुँचा । जवू कुमार के घर, उनके विवाह के दिन, डाका डालने आया, परन्तु उनकी प्रशान्त-मुद्रा को देखा और उनके वैराग्य-रस से परिप्लावित प्रवचन को सुना, तो हृदय पलट गया, ससार से उदासीन हो गया। फलस्वरूप अपने पाच-सौ साथियो सहित जवू कुमार के साथ ही सुधर्मा के चरणो मे दीक्षित हो गए, प्रभव दस्युराज से ऋपिराज हो गए । प्रभव अपने युग के प्रकाण्ड तपस्वी, निर्मल-हृदय साधक और सुप्रसिद्ध आगमाभ्यासी | कितना विलक्षण परिवर्तन ? प्रभव का जीवन ठीक वैदिक ऋषि वाल्मीक से मिलता है। प्रथम चोर, डाकू, हत्यारा और पश्चात् वही महान् योगी, तपस्वी एव आत्मद्रष्टा ज्ञानी । जबूस्वामी के मालव नरेश अवन्तीवर्धन जैसे अनेक प्रमुख शिष्य थे, परन्तु उनके पट्टधर का गौरव प्रभव को ही मिला, दूसरो को नही।
दीक्षा के समय प्रभव ३० वर्ष के तेजस्वी तरुण थे । दीक्षा के २० वर्ष पश्चात् ५० वर्ष की आयु मे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए और १०५ वर्ष की आयु पूर्ण कर वीर सवत् ७५ मे अनशनसमाधि पूर्वक स्वर्गवासी हुए। ४ आर्य शय्यभव
प्रभव स्वामी के पश्चात् आर्य शय्य भव आचार्य पद पर आसीन हुए। आप राजगृह के निवासी वत्सगोत्री ब्राह्मण थे, वैदिक साहित्य के धुरधर विद्वान, यन कर रहे थे, प्रभव स्वामी के उपदेश से प्रभावित हो कर जैन मुनि बन गए । मेधावी मुनि ने गुरु चरणो मे शीघ्र ही श्रुत-साहित्य का अध्ययन किया और चतुर्दश पूर्वधर श्रुत-केवली हो गए।
आप जब दीक्षित हुए, पत्नी गर्भवती थी, पश्चात् अवतरित हुए मनकपुत्र ने वचपन में ही चपा नगरी मे आपसे भेट की और मुनि हो गया। अपने ज्ञान मे पुत्र को केवल-छह महीने का अल्पजीवी जानकर आत्म-प्रवाद आदि पूर्व साहित्य से दशवकालिक आचार-सूत्र का सकलन किया, ताकि मनक अल्पकाल मे ही जैन साध्वाचार से भली-भाति परिचित हो सके। दशवकालिक का रचनाकाल वीर सवत् ८२ के आसपास है । यह एक प्रमुख आचार ग्रन्थ है, जो आज भी प्रत्येक दीक्षार्थी मुमुक्षु को सर्व प्रथम पढाया जाता है।
गय्यभव स्वामी २८ वर्ष की वय मे दीक्षा लेते है, ३४ वर्ष मुनि जीवन मे बिताते है, २३ वर्ष युग प्रधान आचार्य रहते है । इस प्रकार ८५ वर्ष की आयु पूर्ण कर वीर सवत् ६८ मे स्वर्गस्थ होते है।
१ दिगबर विद्वान् प० राजमल्ल भी, अपने संस्कृत जम्बू चरित्र (१३, १६६ ) मे प्रभव स्वामी का
उल्लेख करते है और उनका स्वर्गवास मथुरा मे बताते है ।