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________________ जैन-दर्शन का इतिहास और विकास पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य + + + + + + + + + + + + + + + + + ++ + +--+-+-+-+-+-+-+ -+-+ 'दर्शन' शब्द का सीधा अर्थ देखना या साक्षात्कार करना होता है, पर यदि दर्शनशास्त्र के 'दर्शन' शब्द का अर्थ साक्षात्कार होता, तो दर्शनो मे परस्पर इतना मतभेद नही हो सकता था। प्रत्यक्ष तो मतभेदो का अन्त कर देता है । 'आत्मा नित्य है या अनित्य' इन दो पक्षो मे से यदि किसी एक पक्ष का दर्शन साक्षात्कारात्मक होता, तो आत्मा का नित्यत्व या अनित्यत्व सिद्ध करने के लिए साख्य और बौद्धो को दिमागी कसरत न करनी पड़ती। अतः दर्शन शास्त्र का दर्शन शब्द 'दृष्टिकोण के अर्थ मे ही प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है। बल्कि सत्य तो यह है, कि पदार्थ के जिस अश का प्रत्यक्ष हो सकता है, उस अंश को चर्चा दर्शनशास्त्रो मे बहुत कम है। जिन आत्मा, परमात्मा, जगत् का पूर्ण रूप परलोक आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रत्यक्ष नही हो सकता, उन्ही पदार्थों के विचार मे विभिन्न दर्शनो ने अपने-अपने दृष्टिकोण रक्खे है, और उनके समर्थन मे पर्याप्त कल्पनाओ का विकास किया है। विशेष बात तो यह है, कि प्रत्येक दर्शन अपने-अपने आदि पुरुष को उनमे बताए गए अतीन्द्रिय पदार्थो के स्वरूप का द्रष्टा, साक्षात्कर्ता मानता है, और दर्शन शब्द के 'दृष्टिकोण' विचार की दिशा इन अर्थों को गौण करके उसके साक्षात्कार अर्थ की आड मे अपनी सत्यता की छाप लगाने का प्रयल करता है । दर्शन शब्द के अर्थ मे यह घोटाला होने से एक ओर जहाँ तर्क-बल से पदार्थ के स्वरूप की सिद्धि करने मे तर्क का सार्वत्रिक प्रयोग किया जाता है, तो 'सर्काप्रतिष्ठानात्' जैसे सूत्रो द्वारा उसकी अप्रतिष्ठा कर दी जाती है और वस्तु के स्वरूप को अनुभव-गम्य या शास्त्रगम्य कह दिया जाता है। दूसरी ओर जब पवार्य का उस रूप से अनुभव नहीं होता, तब अधूरे तकों का आश्रय लिया जाता है। अत दर्शन-शास्त्र की निर्णयरेखाएँ १८३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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