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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ They are bat broken Light of thee And then O Lord! art more than they ' नीति और सदाचार के विषय में भी यही बात है। एक तामिल लोकोक्ति में कहा है कि 'मलयतन पापई कडिय तन पुण्य" अर्थात् मलय पर्वत जितने पाप में भी तृण जितना पुण्य रहता हीहै । पुण्य के आधार या अधिष्ठान के बिना पाप खडा नहीं रह सकता। बड़े से बडे पापी मनुष्य में भी पुण्य का कुछ मग तो होता ही है । एक सस्कृत वाक्य में इसी बात को यो कहा है-इस जगत् में दोप-रहित और गुणरहित वस्तु या मनुष्य कही भी नहीं है-"दृष्ट किमपि लोकेऽस्मिन् न निर्दोष न निर्गुणम् ।" ___ इस निस्पण में दो वाते फलित होती है-एक तो यह कि हमे सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नही हो सकता । अतएव जब-जब हम जो-जो सत्य मालूम हो, तदनुसार ही चलना चाहिए । दूसरे के पास भले ही सौ कैण्डिल पावर का देदीप्यमान दीप हो, किन्तु वह हमारे लिए किम काम का हमारे पास भले ही कांच की बत्ती के अन्दर रखा हुआ तेल का छोटा-सा दीपक ही क्यो न हो, आखिर पथ-प्रदर्शन तो वही करेगा। ऐसा होते हुए भी हमारे दृष्टिविन्दु के साथ ही साथ अन्य दृष्टिविन्दु भी हैं, ऐमा जानने और समझने के बाद हम उन्हें समझने का प्रयास करते हैं अथवा यो कहिए कि उन्हें ममझने का प्रयास करना चाहिए । यह तभी हो नकता है, जब हम अपने आपको दूसरे के स्थान पर रखें। इसी बात को अंग्रेजी मे यो कहा है-To Put one self into another shoes (दूसरे के जते में अपना पर डालना) और To get under his skin (उमकी चमडी मे घुम जाना) । यह क्रिया उम समय तक के लिए परकाया प्रवेश रूप है। इसी का नाम Sympathy सहानुभूति (सह अनुभूति) है | Sympathy शब्द की व्याख्या डी० क्विन्मी ने इस प्रकार की है-Act of reproducing in our minds the feelings of another-किसी अन्य व्यक्ति की भावनाओ को अपने मन में पुनरुत्पत्ति की क्रिया । डी. क्विन्सी ने कहा कि महानुभूति अर्थात् दया या अनुमति नहीं, अपितु महृदयता अर्थात् दूसरे की भावनाओ में प्रवेग करके उन्हें समझने की क्रिया । गांधीजी ने १९३३ मे डा० पट्टाभि मे कहा था कि जब मैं किसी मनुष्य को सलाह देता हूँ, तव अपनी दृष्टि से नहीं, किन्तु उसी की दृष्टि से देता हूँ। इसके लिए मैं अपने को उस स्थान में रखने का प्रयल करता है । जहाँ मैं यह क्रिया नहीं कर सकता, वहां सलाह देने से इन्कार कर देता हूँ| I advise a man not from my stand point but from his, I try to put myself in his shoes when I cannot do so I refuse to advise's उनकी इस आदत का परिणाम यह हुआ, कि कितना भी मतभेद रखने वाले के प्रति भी वे सहिष्णु रहत और उसके साथ मित्रता रखने में समर्थ होते । १९२६ मे सावरमती आश्रम मे गाधी जी ने एक बार मुझे कहा (उन्ही के गन्दी में) मैं स्वय Purntan है, किन्तु दूसरों के लिए Catholic हूँ।' Chaudra Shanker Shukla 9 More conversations of Gandhiji -by (Unpublished). २ गांधी जी ना समागमो-स. चन्द्रशकर शुक्ल १८२
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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