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________________ स्याद्वाद को सर्वप्रियता है, वह सभी पदार्थों को सर्वथा जानता है । जो सर्व पदार्थों को सर्वथा जानता है वह एक पदार्थ को भी सर्वथा जानता है। "एको भाव. सर्वथा येन दृष्टः, सर्व भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा. एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥" अर्थात्-"सभी पदार्थों को उनके सभी रूपान्तरो सहित जानने वाला सर्वज्ञ ही एक पदार्थ को पूर्ण रूप से जान सकता है । सामान्य व्यक्ति एक ही पदार्थ को पूरा नही जान सकता। ऐसी अवस्था मे अमुक व्यक्ति ने अमुक बात मिथ्या कही, ऐसा कहने का हमे कोई अधिकार नही । यह अधिकार तो सर्वज्ञ को ही है । व्यक्ति का पदार्थ-विषयक ज्ञान अधूरा होता है । अत यदि कोई अपने अधूरे ज्ञान को पूर्ण ज्ञान के रूप मे दूसरो के सामने रखने का साहस करता हो और वही सच्चा और दूसरे सब झूठे, ऐसा कहता हो, तो हम उसे इतना अवश्य कह सकते हैं कि "तुम अपनी मर्यादा का उलघन कर रहे हो।" इससे अधिक उसे हम कुछ नहीं कह सकते । जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित "स्याद्वाद" सिद्धान्त से ऐसा फलित होता है। 'स्याद्वाद' का सुव्यवस्थित निरूपण जैन-दर्शन ने किया, यह ठीक है, किन्तु यह नियम तो जगत् जितना ही प्राचीन तथा व्यापक है । मल्लिषेण के कथनानुसार स्याद्वाद ससार विजयी और निष्कटक राजा है-"एवं विजयिनि निष्कण्टके स्याद्वादमहानरेन्द्र ।" इस सिद्धान्त का उल्लेख ऋग्वेद तक मे मिलता है-"एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।" (ऋग्वेद १,१६४-४६) एक ही सत् तत्व का विप्र अर्थात् विद्वान् विविध प्रकार से वर्णन करते हैं यह स्याद्वाद का बीजवाक्य है । जैन-दर्शन की दृष्टि के अनुसार एक ही पदार्थ के विपरीत वर्णन अपनी-अपनी दृष्टि से सच्चे है । पारिभाषिक शब्दो मे कहा जाए, तो प्रत्येक पदार्थ मे "विरुद्धधर्माश्रयत्व" है । इस प्रकार का परस्पर विरोधी वर्णन उपनिषद् में भी एक जगह आता है । आत्मा के विषय मे उपनिपद्कार कहते हैं-"वह चलता है, वह स्थिर है, वह दूर है, वह समीप है, वह सर्वान्तर्गत है, वह सभी से बाहर है।" ..."तेदेजति तन्ननति तद्रे तदन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य सन् सर्वस्यास्य बाह यतः।"-( ईश ५) सोक्रेटीस को अपने ज्ञान की अपूर्णता का-उसकी अल्पता का पूरा भान था। इस मर्यादा के भान को ही उसने ज्ञान अथवा बुद्धिमत्ता कहा है । वह कहता था कि मैं ज्ञानी हूँ, क्योकि मै जानता हूँ कि मैं अज्ञ हूँ । दूसरे ज्ञानी नहीं है। क्योकि वे यह नहीं जानते कि वे अज्ञ है। प्लेटो ने इस स्याद्वाद अथवा सापेक्षवाद का निरूपण विस्तार से किया । उसने कहा कि हम लोग महासागर के किनारे खेलने वाले उन बच्चो के समान है, जो अपनी सीपियो से सागर के पूरे पानी को नापना चाहते है। हम उन सीपियो से महोदधि का पानी खाली नहीं कर सकते, फिर भी अपनी छोटीछोटी सीपियो मे जो पानी इकट्ठा करना चाहते है, वह उस अर्णव के पानी का ही एक अश है, इसमे कोई १७६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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