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स्याद्वाद की सर्वप्रियता
चन्द्रशंकर शुक्ल
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स्याद्वाद' अथवा 'अनेकान्तवाद' जैन दर्शन का शब्द है । एक हाथी को देखने वाले सात अधो का दृष्टान्त स्याद्वाद के समर्थन के रूप मे प्रसिद्ध है। इस सिद्धान्त का सार यह है कि किसी एक पदार्थ का वर्णन भिन्न-भिन्न प्रकार का हो सकता है । वह वर्णन अपनी-अपनी दृष्टि से सच्चा होता है। किन्तु समग्र सत्य की दृष्टि से अधूरा ही रहता है । जिस समय वर्णन की सभी दृष्टियां एकत्र की जाती है, उसी समय पदार्थ का यथार्थ वर्णन हो सकता है । तात्पर्य यह है कि भिन्न-भिन्न अनेक दृष्टिकोणो से वस्तु का दर्शन करना ही सम्यग् दर्शन का वास्तविक मार्ग है और वही 'अनेकान्त' है। एक ही दृष्टि से किया हुआ वर्णन एकान्त अर्थात्, अधूरा होता है, इसलिए वह मिथ्या है । इसी बात को दार्शनिक परिभाषा मे हेमचन्द्र ने यो कहा है-'अनन्त धर्मात्मकमेव तत्वम्" अर्थात् तत्त्व अनन्त धर्मयुक्त है । उन्होने और स्पष्ट करते हुए कहा कि दीपक से लगाकर व्योम पर्यन्त वस्तु का यही स्वभाव है। कोई भी पदार्थ स्याद्वाद की मर्यादा का उल्लघन नहीं कर सकता-"आदीपमाव्योम समस्वभाव स्यावादमुद्रानतिभेदि वस्तु" (अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका, ५)
उपनिषद् मे एक शिष्य ने गुरु से पूछा-"हे भगवन् । ऐसी कौन-सी वस्तु है, जिसके ज्ञान से वस्तुमात्र का ज्ञान हो जाए ?"-(मुण्डक १-१-३) ऐसा ही एक प्रश्न पूछने वाले दूसरे विद्यार्थी श्वेतकेतु को उसके पिता आरुणि ने कहा कि मिट्टी के लोदे को जान लेने से मिट्टी की बनी हुई सभी वस्तुओ का ज्ञान हो जाता है--"एकेन मृत्पिण्डेन विज्ञातेन मृण्मय विज्ञातं स्यात्"-(छान्दोग्य ६-१-४) । जैन दर्शन ने यह बात तो बताई सो बताई, किन्तु साथ ही में उससे फलित होने वाले एक उपसिद्धान्त का भी निर्माण किया और स्यावाद का स्वरूप वर्णन करते हुए कहा कि जो एक पदार्थ को सर्वथा जानता
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