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जैन मतानुसार अभाव-प्रमाण मीमासा
अभावो वा प्रमाणेन स्वानुरूपेण मीयते । प्रमेयत्वाद्यया भावस्तस्माद्भावात्मकात् पृथक् ॥'
कुमारिल ने श्लोकवार्तिक मे प्रागभावादि अभाव विचार के प्रसग मे क्षीरे दध्यादि इत्यादि श्लोक द्वारा निम्नोक्त आशय को व्यक्त किया है। दूध मे दही का अभाव प्रागभाव है, दही मे दूध का अभाव प्रध्वसाभाव है, घट मे पटका अभाव अन्योन्याभाव है, और खरविषाण का अभाव अत्यन्ताभाव है । पर अभाव को भावस्वभाव बिना माने ये चारो ही अभाव नहीं घट सकते । अत अभाव प्रकारान्तर से भावरूप ही है । अभाव स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, किन्तु वह भी वस्तु का उसी तरह एक धर्म है, जिस प्रकार भावाश । अर्थात् वस्तु भावाभावात्मक है और इसलिए अनुपलब्धि नामक स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है।
-A200809
१ श्लोक वा०, अ० श्लो० ५५ २ मी०, श्लो० अभाव० श्लो० २-४
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