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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ अभाव-प्रमाण का अन्तर्भाव नैयायिको ने प्रत्यक्ष प्रमाण में किया है और साख्य-दर्शन में भी उसको प्रत्यक्ष के अन्तर्गत ही माना गया है। किन्तु उसके उत्पादन का मार्ग तीनो ही दार्शनिको का भिन्न-भिन्न है । साख्य के मतानुसार भूतल के स्वरूप मे प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । कभी भूतल घटयुक्त होता है और कभी घट के हट जाने से केवल भूतल शेप रह जाता है । जब केवल भूतल रह जाता है, तब इसी अवस्था को घटाभाववद् भूतल कहते है । मत घटाभाव भी भूतल का स्वरूप विशेप ही है। भूतल का ग्रहण इन्द्रिय से होता है । अत उसका कैवल्यरूप भेद भी जिसे घटाभाववद् भूतल कहा जाता है, प्रत्यक्ष ही है । इसलिए उमका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष मे ही हो जाता है। नैयायिक विशेष्य-विशेपणभावस्प सन्निकर्ष के द्वारा अभाव का चाक्षुष प्रत्यक्ष मानते है। वैशेपिक ने अभाव का अनुमान मे अन्तर्भाव दिखाते हुए कहा है अभावोऽप्यनुमानमेव यथोत्पन्न कार्यकारणसद्भावे लिंगम् एवम नुत्पन्न कार्य कारणासद्भावे लिंगम् ।' वेदान्तियो के मत मे घटाभावदि अभावो के साथ इन्द्रिय का कोई सम्बन्ध सम्भव नहीं होने से प्रत्यक्ष द्वारा अभाव का ग्रहण नहीं हो सकता है। अत वे अभाव के ग्रहण के लिए अभाव या अनुपलब्धि नामक एक पृथक् प्रमाण मानते है। बौद्ध दार्शनिक भी अपने कल्पित अभाव की सिद्धि अनुपलब्धि-हेतुक अनुमान के द्वारा ही मानते है। "अभाव प्रमाण के पृथक् अस्तित्व का वाद बहुत पुराना जान पड़ता है, क्योकि न्यायसूत्र' और उसके वाद के सभी दार्शनिक ग्रन्थो मे तो उसका खण्डन पाया ही जाता है, पर अधिक प्राचीन माने जाने वाले कणाद-मूत्र में भी प्रशस्तपाद की व्याख्या के अनुसार उसके खण्डन की सूचना है। विचार करने से जान पडता है कि यह पृथक् अभाव प्रमाणवाद मूल मे मीमासक परम्परा का ही होना चाहिए । अन्य सभी दार्शनिक परम्परा उस वाद के विरुद्ध है । शायद इस विरोध का मीमासक परम्परा पर भी असर पडा और प्रभाकर उस वाद से सम्मत न रहे (अस्ति चेय प्रसिद्धि र्मीमासकाना पष्ठ किलेद प्रमाणमिति 'वोय तहि प्रसिद्धि ? प्रसिद्धिर्वट यक्षप्रसिद्धिवत् यदि तावत् केचिन् मीमासका प्रमाणान्यत्व मन्यन्ते ततश्च वय किं कुर्म । ऐसी स्थिति मे कुमारिल ने उस वाद के समर्थन मे बहुत जोर लगाया, और सभी तत्कालीन विरोधियो का सामना किया।" कुमारिल ने कहा है प्रशस्तपाद भाष्य, पृ० १११ । वै० सू० ६-२-५ २ न्यायसूत्र २,२,२ प्रशस्तपाद भाष्य, पृ० २२५ । वै० सू०९-२-५ ४ शाबर भा० १-१-५ ५ बृहती, पृ० १२० वही, वृ० पृ० ६ १२३ प्रकरण, पृ० ११८-१२५ • प्रमाणमीमासा का टीप्पण (पडित श्री सुखलाल कृत), पृ० २६ से उद्धृत १७६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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