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जैन मतानुमार अभाव-प्रमाण मीमासा
वस्तु सदसदात्मक है, इसमे विवाद नहीं है । पर अभावाश भी वस्तु का धर्म होने से यथासभव भावग्राहक प्रत्यक्षादि प्रमाणो से गृहीत होता है । जैसा कि वादिदेव सूरि ने कहा है
अभाव-प्रमाणतु प्रत्यक्षादावेवान्तर्भवतीति ।।
जिस व्यक्ति को घटयुक्त भूतल का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, उसे ही घट के अभाव मे घटाभाव का भी प्रत्यक्षादि से ज्ञान होता है । यह कोई नियम नही है कि भावात्मक प्रमेय के ग्राहक प्रमाण को भावरूप और अभावात्मक प्रमेय के ग्राहक प्रमाण को अभावात्मक ही होना पडेगा। अभाव के द्वारा भी भाव का ज्ञान सभव है। जैसे--मेघाच्छन्न आकाश मे वृष्टि के अभाव से आकाश मे वायु की सत्ता रूप भाव पदार्थ प्रतीत होता है, इसी प्रकार भाव के द्वारा भी अभाव का ज्ञान होता है। वह्नि की मत्ता के ज्ञाग से शीताभाव का ज्ञान लोक प्रसिद्ध है। मुद्गरादि से घटाभाव की उत्पत्ति, भाव पदार्थ द्वारा अभावपदार्थ की उत्पत्ति का दृष्टान्त है।
यदि ऐसा न माना जाए, तो कुमारिल के 'सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानमन्यवस्तुनि'२-इस कथन का आशय क्या है ? क्या आत्मा सर्वथा ज्ञानरूप से अपरिणत है ? या कथचित् अपरिणत है ? इनमे से प्रथम पक्ष मे तो 'मेरी माता वन्ध्या है' इत्यादि वाक्य के सदृश स्व-वचन विरोध है, कारण यदि आत्मा सर्वथा ज्ञान शून्य है, तो वह अभाव का परिच्छेदक (जाता) कैसे बन सकता है ? परिच्छेदक होने का अर्थ ही है-ज्ञानयुक्त होना । और यदि आत्मा को कथचित् ज्ञानयुक्त मानकर यह कहे कि अभाव-विषयक ज्ञान है, किन्तु निषेध्य-पदार्थ विषयक ज्ञान नहीं है, तो यह भी उचित नहीं। कारण. ऐसा मानने पर अभाव-विषयक वह ज्ञान ही अभाव प्रमाण सिद्ध हुआ और वह ज्ञान इन्द्रियजन्य होने के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत है । भावाश ज्ञान के समान अभावाश ज्ञान कराने मे चक्षु को प्रवृत्ति अविरुद्ध है । शुद्ध भूतलग्राही प्रत्यक्ष से घटाभाव का वोध प्रसिद्ध है। कुमारिन के उपरोक्त कथन के 'विज्ञानमन्यवस्तुनि' अश मे तो अभावज्ञान को भावात्मक माना ही गया है।
प्रागभावादि के स्वरूप का निपेध नही किया जा सकता। अर्थात् वे नि स्वरूप नही हैं । वे वस्तुरूप ही है । घटका प्रागभाव मृत्पिण्ड को छोडकर अन्य कुछ नही है। अभाव भावान्तर रूप है, यह अनुभव सिद्ध बात है।
अभाव-प्रमाण का खण्डन करते हुए आचार्य श्री हेमचन्द्र ने कहा है-भावाभावात्मकत्वाद् वस्तुनो निविषयोऽभाव । अर्थात् जब भावाभावात्मक अखड वस्तु प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा गृहीत हो जाती है, तो फिर अभावाश के ग्रहण के लिए पृथक् अभाव नामक प्रमाण मानने की कोई आवश्यकता नही रह जाती।
' स्याद्वाब रत्नाकर, पृ० ३१० २ श्लोकवार्तिक, अभाव० श्लोक ११ ३ प्रमाण-मीमांसा, अ० १, आ० १, सू० १२