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गुरदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्य
व्यवहारनयादेशात् मृदादि स्वद्रव्य घटोत्तरकालवति घटाकार-विशिष्ट घट-प्रध्वत । स चानन्त समवतिष्ठते ।।
मीमासक अभाव को अनुपलब्धि नामक स्वतन्त्र प्रमाण द्वारा ग्राह्य मानते हैं। उनका कयन है कि भावरूप प्रमेय का ग्राहक प्रमाण जैसे भावात्मक होता है, उसी तरह अभावरूप प्रमेय के लिए अभावरूप अनुपलब्धि प्रमाण को ही आवश्यकता है । जैसा कि कुमारिल ने श्लोकवार्तिक में कहा है
मेयो यद्वदभावो हि मानमप्येवमिष्यताम् । ४५ भावात्मके यथामेये नाभावस्य प्रमाणता। तर्थवाभावमेयेऽपि न भावस्य प्रमाणता ॥ ४६२
जहाँ भाव पदार्थ के ग्राहक पाच प्रमाणो को प्रवृत्ति नहीं होती वहाँ अभाव बोध के लिए अभाव प्रमाण प्रवृत्त होता है । जैसा कि कुमारिल ने लिखा है
प्रमाण-पचकं यत्र वस्तुरूपे न जायते ।
वस्तुसत्वावदोषार्थ तत्राभाव प्रमाणता ॥' वस्तु सत् और असत् उभयरूप है। उनमे इन्द्रिय आदि के द्वारा सदंश का ब्रह्म हो जाने पर भी असदश के ज्ञान के लिए अभाव प्रमाण अपेक्षित होता है । आचार्य हेमचन्द्र ने 'प्रमाणमीमासा' मे कुनारिल के इसी आशय को इस प्रकार व्यक्त किया है-भवतु भावाभावरूपता वस्तुनः कि नश्छिन्नम् । वयमपि हि तथैव प्रत्यपीपदाम । केवल भावाश इन्द्रिय-सनिकृष्टत्वात् प्रत्यक्ष-प्रमाणगोचरः ब्भावाशस्तु न तयेत्यभावप्रमाणगोचर इति । कुमारिल के मतानुसार जिस पदार्थ के अभाव का ज्ञान करना है, उसके अधिकरण का प्रत्यक्ष ज्ञान और प्रतियोगी का स्मरण होने पर जो मानस नास्तिता-ज्ञान होता है, वह अभाव है। जैसा कि कुमारिल ने कहा है-गृहीत्वा वस्तु-सद्भाव स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । माननं नास्तिता-जान जायतेऽ भानपेक्षया।' अभाव को यदि न माना जाए, तो प्रगभावादि-मूलक समस्त व्यवहार नप्ट हो जाएंगे, क्योकि पदार्थ को स्थिति अभाव के अधीन है । दूध मे दही का अभाव नागभाव है दही मे दूध का अभाव प्रध्वसाभाव है । घट मे पट का अभाव अन्योन्याभाव है और शश मे श्रृंग का अभाव अत्यन्ताभाव है।
'स्याद्वाद रत्नाकर, पृ० ५७८
मी० श्लो० अभाव, श्लोक ४५-४६ ३ वही, श्लोक १ " वही, श्लोक १२-१४ ५ प्रमाण-भीमासा, पृ०६ मीश्लो० अभाव श्लोक २७
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