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________________ जैन मतानुसार अभाव-प्रमाण मीमासा इस अभाव प्रमेय को लेकर दार्शनिको मे विभिन्न प्रकार के विचार प्रवृत्त है । कोई दार्शनिक अभाव को मानते ही नहीं है, कोई उसे कल्पित मानते है, कोई उसे स्वतन्त्र पदार्थ मानते है, कोई उसे अभावात्मक मानते है, और कोई उसे भावस्वरूप मानते है । पुन इस अभाव पदार्थ के ग्राहक-प्रमाण के बारे में भी कई मत है । प्रमाण, प्रमेय-साधक होता है, इसमे कोई विवाद नहीं है । फिर भी सत्य की कसौटी सबकी एक नही है । एक हो पदार्थ के निर्णय के लिए दार्शनिको द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रमाण माने गए है। यदि कहा जाए कि अभाव नि स्वरूप होने के कारण असिद्ध है, तो यह शका अनुचित है, क्योकि जैन मतानुसार अभाव पदार्थ भाव स्वभाव वाला है, अत नि स्वरूप नहीं है । यह भी शका नही करनी चाहिए कि भाव स्वभाव वाले प्रागभावादि अभाव की सिद्ध कैसे हो सकती है ? जैन दार्शनिको के मतानुसार ऋजुसूत्र नय और प्रमाण के द्वारा उन ( प्रागभावादि अभाव ) की सिद्धि हो जाती है। जैसा कि वादिदेव सूरि ने कहा है-नय-प्रमाणादिति, और विद्यानन्दस्वामी ने भी 'अष्टसहस्री' मे इसी बात को इस प्रकार कहा है, ऋजुसूत्रनयापर्णादिति । वर्तमान क्षण के पर्यायमात्र की प्रधानता से वस्तु का कथन करना, ऋजुसूत्र है। जैसा कि आचार्य मल्लिषेण ने लिखा है-ऋजु वर्तमान-क्षणस्थायि पर्यायमात्र प्राधान्यत सूत्रयन्नभिप्राय' ऋजुसूत्र ।' ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से प्रागभाव घटादिकार्य के अव्यवहितपूर्व मे रहने वाला उपादान-परिणाम अर्थात् मृत्पिण्ड स्वरूप ही है, और व्यवहार नय की अपेक्षा से मृदादि द्रव्य ही घट-प्रागभाव है। प्रध्वसाभाव की सिद्धि भी ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से होती है। प्रध्वसाभाव स्थल मे उपादेय क्षण ( घटोत्पत्तिस्थितिक्षण ) ही उपादान ( मृत्पिण्डरूपकारण ) का प्रध्वसाभाव है। उपादेय क्षण को को ही उपादान का प्रध्वसक्षण माने जाने पर यह शका हो सकती है कि उपादेय के उत्तरोत्तर क्षण मे प्रध्वसाभाव का अभाव होने से घटादि की पुनरुत्पत्ति की आपत्ति होगी। पर ऐसी शका उचित नही, क्योकि कारण मे कार्य का नाशकत्व नहीं है, अर्थात् उपादान कारण का नाश होने पर उत्तर पर्याय रूप कार्य की उत्पति होती है, न कि कार्य के नाश मे कारण की उत्पति का नियम है । प्रागभाव उपादान है और प्रध्वस उपादेय । प्रागभाव का नाश करता हुआ प्रध्वस उत्पन्न होता है । घट-पर्याय कपाल-पर्याय का प्रागभाव है, और कपाल-पर्याय घट-पर्याय का प्रध्वस । पर यहाँ शका हो सकती है कि दो अभाव पदार्थों मे उपादान-उपादेय सम्बन्ध कैसे होगा? किन्तु जैन दर्शन के अनुसार प्रागभाव पूर्वक्षणवर्ती कारण रूप तथा प्रध्वस उत्तरक्षणवर्ती कार्य रूप है, अर्थात् वस्तुत दोनो अभाव कथचित् भावरूप है, अतएव उक्त स्थल मे दो अभावो मे सम्बन्ध मानने का प्रसग ही नही है। व्यवहार नय की अपेक्षा से मृदादि स्वद्रव्य ही घटोत्तर-काल मे घट-प्रघ्वास कहलाता है। जैसा कि वादिदेव सूरि ने कहा है १ स्याद्वाद रत्नाकर, पृ० ५७५ । अष्ट सहनी, पृ० १०० २ स्याद्वाद मजरी, पृ० ३१७ १७३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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