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गुन्देव श्री रन नुनि स्मृति-ग्रन्थ
होता है । इन्द्रिय और नन से उत्पन्न होने वाले गांव्यवहारिक उत्यम के अन्ग्रह, ईहा उपाय और धारणा व वार प्रकार हैं। पारनार्षिक प्रगन की उत्ति में केवल आन्मा को महायना रहती है।
प्रत्येक नव्य का अपना अमागरग वन्न होता है। उनमें अपने द्रव्य, मंत्र, काल और भाव होने है जिननें उनकी सत्ता मोनित रहता है। मूलन्चिर कन्ने पर द्रव्य क्षेत्र नाल, भाव नी अन्नन तथ्य की प्रयाधारण निविन ही फानन होने है। जैन-टगन के अनुसार प्रत्यक दव्य अपने स्वरूप चतुष्टय में मन होना है और पररूप चतुष्टय ने अन् । पायं वह उन और पररूप में अमन होने के कारन भाव और अमाल है। जैसा कि गर्य नल्लिन ने कहा है बन्न मत्त्वात् परांग चासत्त्वान् भागभावालनं वस्तु। हिन्तुको सर्वग भावपल्लीनारा जाए, तो एक बन्नु के पहनाव में सपूर्ण वस्तुओ का उनाव मानना चाहिए। आचार्य श्री चन्द्र इर्ग गत को इस प्रकार नहीं है सबमस्ति स्वहंग, परगण नास्ति च । अन्यथा नवनात त्या न्यल्पत्यायसमव ।'
पदार्थ सद्-असदाना है। उसने नद् अमगे भाव और असद् अग गे अभाव ग प्रतिपंच कहा गग है। वह नाव पुन. चार प्रकार है। जैसे-पागनाव, उध्वंसामान, अत्यन्ताभाव और अन्योन्यानाव | शनि गादिदे मूरिने का है-वित्रि.नदंग इति । प्रतिपेगेऽनदंग इनि । म अनुगं प्रागभाव प्रध्यानगम इनरंतरामागेऽत्यन्नाभावाचा
यह नो यन्त्य है कि उन्य मंन उन्पनि होती है और न ग्निाम । निन्तु जो उत्पनि और विनाम होते हैं, वे प्याग । अग्ने या भाग होता है और पांग्नप से कार्य । जो प्याय उन्पन्न होने चा रहा है, वह उत्पत्ति के पहले पपार हनने नहीं है । अत. उतरा जो यह अनाव है, वह प्रागभाव है। घट-पयांग जब तक स्ल नही हुश तक वह असत है और जिस निटी उभ्य ने वह उत्पन्न होने गला है, से वर का प्रागनाव कहा जाता है।
द्रव्य न ग्निाग नहीं होता है । दिनान होग है पर्याय का । अ. कारण पर्याय का नाश कार्यपगंवरूप होता है। नाई बिनाम नर्वया अगवन्न ग नुन्छ न होकर उत्तरपयांग्ररूप होता है। घट पर्णय नष्ट होकर बयान-पगंग बनता है। अतः घट-विनाश मालरूम है, जिसे प्रमाभाव कहा जाता है।
एक पर्णप मा दूसरे पर्याय ने जो भाव है वह इतराभाव है जिसे अन्गपोह भी कहते है। प्रत्येक पदाचं स्पने स्वभाव से निटिचन है । एक का स्वभाव इतर का नहीं होता । एक य का दूसरे द्रश्य ने जो कानिक अनाव है, वह अत्यन्तामात्र है।
१ स्याहार मंजरी, पृ० १७६ २ प्रमाण मोमांडा, पृ० १२ 3 प्रमाणनयतत्वालोकालंका, परि० ३. मूत्र ५२-४
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