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जैन मतानुसार अभाव-प्रमाण मीमासा
मे स्यात्' शब्द लगाने से इष्टफल देते है। जैसा कि स्वामी समतभद्र ने बृहत्स्वयभू स्तोत्र (का० ६५) मे विमलनाथ भगवान् के स्तवन मे लिखा है
नयास्तव स्यात्पदलाछना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भव-तमाः प्रणता हितषिण.॥
नय, नगमादि भेद से सात प्रकार का होता है। जिसके द्वारा वस्तु मे अनेक धर्मों का ज्ञान हो, उसे प्रमाण कहते है। प्रमाण स्याद्वादरूप होता है । जैसा कि आचार्य श्री मल्लिषेण ने लिखा हैप्रमीयते परिच्छिद्यतेऽर्थोऽनेकान्तविशिष्टोऽनेन इति प्रमाणम् । प्रमाण का सामान्य लक्षण है-प्रमाया । करणप्रमाणम् । प्रमा का करण ही प्रमाण है। तद्वति तत्प्रकारानुभव प्रमा-जो वस्तु जैसी है उसको वैसे ही जानना प्रमा है । करण का अर्थ है, साधकतम । प्रमाण के सामान्य लक्षण मे किसी को आपत्ति नहीं है। विवाद का विषय करण बनता है । वौद्ध दार्शनिक सारूप्य और योग्यता को करण मानते है, नैयायिक इन्द्रिय को, और जैन दार्शनिक केवल ज्ञान को ही करण मानते है। प्रमाण के फल की सिद्धि उस (प्रमाण) को ज्ञानस्वरूप माने बिना नहीं हो सकती । अत करण वनने का श्रेय ज्ञान को ही मिल सकता है।
ज्ञान और प्रमाण का व्याप्य-व्यापक भाव सम्बन्ध है । ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य । ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनो प्रकार का होता है । सम्यक् निर्णायक ज्ञान यथार्थ होता है और सशय, विपर्यय आदि ज्ञान अयथार्थ । केवल यथार्थज्ञान प्रमाण होता है। अर्थ का सम्यक निर्णय प्रमाण है। जैसा कि आचार्य श्री हेमचन्द्र ने लिखा है-सम्यगर्थनिर्णय प्रमाणम् । यह जैन-सम्मत प्रमाण का परिष्कृत लक्षण है।
प्रमाण की सख्या सब दर्शनो मे एक-सी नहीं है । नास्तिक (चावार्क) केवल एक प्रत्यक्ष मानते है। वैशेषिक दो-प्रत्यक्ष और अनुमान । साख्य तीन-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । नैयायिक चार-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द (आगम) । मीमासा (प्रभाकर) पाँच-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति । मीमासा (भाट्ट, वेदान्त) छ-प्रत्यक्षादि पूर्वोक्त और अभाव । पौराणिक इनके अतिरिक्त सभव, ऐतिह्य भी प्रमाण मानते है । जैन दार्शनिक दो प्रमाण मानते है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । जैसा कि वादि-देवसूरि ने लिखा है-तच्च द्विभेद प्रत्यक्ष च परोक्ष चेति ।
आचार्य श्री हेमचन्द्र ने इसी का समर्थन इस प्रकार किया है-प्रमाण द्विधा । प्रत्यक्ष परोक्ष च। साव्यवहारिक और पारमार्थिक-प्रत्यक्ष के ये दो भेद है । साव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन से पैदा ' स्यावाद मजरी, पृ. ३२१ २ प्रमाण-मीमासा, २१२२ ३ प्रमाणनयतत्त्वालोकालकार, परि० २, सूत्र १
प्रमाण-भीमासा, पृ०७
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