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जैन मतानुसार प्रभाव-प्रमाण-मीमांसा
साध्वी श्री निर्मलाश्रीजी, एम. ए., साहित्यरत्न
प्रमाण
प्रमेय की सिद्धि प्रमाण द्वारा होती है । जैसा कि कहा गया है— मेयसिद्धिर्मानाधीनत्वात् । ' के द्वारा प्रमेयात्मक वस्तु स्वरूप को जानने के पश्चात् ही मानव अपने इष्ट विपय की प्राप्ति और अनिष्ट विपय के परिहार के लिए तत्पर होते है । जैसा कि न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ने लिखा है - प्रभारणेन खल्वय ज्ञातार्थमुपलभ्य तमर्थमभीत्सति जिहासति वा । "
१ न्यायदर्शन प्रसन्नपदा १
२ न्यायदर्शन, पृ० १
से
जिसका निश्चय किया जाए उसे प्रमेय कहते है, और जिस ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण वस्तु तत्त्व का निश्चय किया जाए, उस सर्वांशग्राही बोध को प्रमाण कहते है । प्रमेयात्मक पदार्थों का दुर्नय, नय और प्रमाण से निश्चय किया जाता है। नय का अर्थ है - जिस ज्ञान के द्वारा अनन्त धर्मों में से किसी विवक्षित एक धर्म का निश्चय किया जाए, र्थात् अनेक दृष्टिकोण से परिष्कृत वस्तु तत्व के एकाश-प्राही ज्ञान को नय कहते है । नय, प्रमाण सर्वथा भिन्न भी नही है, अभिन्न भी नही है । प्रमाण यदि अशी है, तो नय अश है । प्रमाण यदि सूर्य है, तो नय रश्मिजाल । प्रमाण सत् को ग्रहण करता है और नय ध्यात्सत्-इस तरह सापेक्ष रूप से जानता है, जबकि दुर्नय 'सदेव ऐसा अवधारण कर अन्य का तिरस्कार करता है । जैसा कि आचार्य श्री हेमचन्द्र ने कहा है – सदेव सत् स्यात् सवितित्रिधार्थी मीयेत दुर्नीति - नय-प्रमाणं., (अन्ययोगव्य० श्लोक ) २८ निष्कर्ष यह है कि सापेक्षता ही नय का प्राण है । जैसा कि स्वामी समतभद्र ने कहा है-निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् (आप्स - मीमासा श्लोक १०८ ) । प्रमाण सर्वनयरूप है। नय वाक्यो मे 'स्यात्' शब्द लगाकर बोलने को प्रमाण कहते है । जिस प्रकार रसो के सयोग से लोहा अभीप्ट फल को देने वाला वन जाता है, उसी तरह नय
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