________________
जैन-दर्शन एक चिन्तन
जैन-दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पादवाद और विवर्तवाद–इनका कोई स्थान नहीं है। क्योकि प्रतीत्य-समुत्पाद वाद प्रत्येक वस्तु को अनित्य और क्षण-स्थायी मानता है और विवर्तवाद जगत् को स्वप्न के समान अलीक मानता है।'
भारतीय दर्शनशास्त्र शुष्क ज्ञान मात्र अथवा विद्वानो के मनोविनोद का साधन मात्र नहीं है। भारत मे दर्शन तथा धर्म का, तत्त्व-ज्ञान और जीवन का गहरा सम्बन्ध है । जीव विविध प्रकार का क्लेश पाता है-इन क्लेशो की निवृत्ति कैसे हो, जीव जड के बन्धन से कैसे मुक्त हो सकता है ? यह बतलाना भारतीय दर्शन का एकमात्र लक्ष्य है। जड पदार्थों के विश्लेषण से नाना प्रकार की सासारिक उन्नति होती है। सुख प्राप्ति के लिए विविध प्रकार का साधन बनता है । पर भारतीय दर्शन ने इन सुखो को दुःख मिश्रित सुख कहकर इसकी उपेक्षा की है, और आत्मविश्लेषण पर अधिक भार देता है। आत्मविश्लेपण का फल है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि नैतिकता । इसी नैतिकता का अभाव मानव जीवन को दुःखपूर्ण बनाता है। क्योकि जितना ही नैतिकता का विकास होता है, उतना ही मानव जीवन सुखी होता है । इसलिए आज के जगत् मे इतनी यान्त्रिक उन्नति होने पर भी, सुख के प्रचुर साधन उपस्थित होने पर भी इन सभी के पीछे आत्मविश्लेपण नही रहने से नैतिकता के अभाव मे आज का मानव समाज धीरे-धीरे सुख और शान्ति से दूर होता हुआ, न तो स्वय ही सुख पाता है और न दूसरे को शान्ति देता है।
'दृश्यमान जगत् का मौलिक तत्त्व क्या है ? यदि स्वप्न से अधिक मौलिक तत्त्व हो, तो परस्पर का सम्बन्ध है या नहीं ? मौलिक कारण कार्यरूप मे कैसे परिणत होता है ? मैंने पूर्वोक्त इन तीन प्रश्नो का उत्तर जन-दर्शन के अनुसार सक्षेप मे वर्णन किया है।