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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ जाता है। आम्बिर मै वह पूर्णरूप मे पोद्गलिक सम्बन्ध को विच्छिन्न कर देता है और अपने म्बम्प मे प्रतिप्ठित हो जाता है। तीसरा प्रश्न यह है कि परिदृश्यमान जगत का मौलिक कारण कार्यस्प मे कैसे परिणत होता है? इसके उत्तर मे दर्शनशास्त्र में चार विभिन्न प्रकार की चार प्रक्रियाएं वतलाई गई हैं। बारम्भवाद, परिणामवाद, विवर्तवाद और प्रतीत्यसमुत्पादवाद नाम मे उन चागे प्रक्रियामओ का परिचय दिया जाता है। आरम्भवाद-इसमे परमाणुओ को परिदृश्यमान इन्द्रियग्राह्य जागतिक वस्तुओ का मौलिक कारण कहा गया है । परमाणु अनन्त, नित्य और अविभाज्य है । वे परमाणु जव आपस मे सम्वन्धित होते है, तो उममे म्यूल एक नया कार्य उत्पन्न होता है । वह कार्य अपने कारण मे अत्यन्त भिन्न है तथा उत्पन्न होने मे पहले कारण में उसकी कोई मत्ता नहीं रहती है। परिमाण में वह अपने कारण से बृहत् होता है। उदाहरण के तौर पर वस्त्र को लीजिए । कुछ मूत्रो को एकत्रित करके बुनने पर वस्त्र उत्पन्न होता है, कार्यरूप वस्त्र अपने कारण रूप मूत्र से परिमाण में वृहत् ही होना है तथा उत्पन्न होने के पहले वस्त्र की सत्ता भी उमके कारणभून मूत्र में प्रतीत नही होती है, न्याय, वैगेपिक और मीमामक इम मत के समर्यक है। परिणामवाद-वह ठीक आरम्मवाद के विपरीन है । वह परिदृश्यमान जागतिक वस्तु के मौलिक कारण को अतिमूक्ष्म, व्यापक, एक तथा परिणामी नित्यानित्य मानता है । वह कार्य को कारण मे अत्यन्त भिन्न मानता है तथा कारण में कार्य की मत्ता को स्वीकार करता है । अमुद्र के उदाहरण मे हम इस विषय को स्पष्ट कर सकते है । समुद्र में तरग के वाद तरंग उत्पन्न होता है, और उमी में विलीन हो जाता है । परिणामवादी कहता है कि कारणरूप ममुद्र मे कार्यरूप तरग की मत्ता विद्यमान रहती है, तभी तरंग उममे आविर्भूत होता है और उसी में विलीन हो जाता है । कारणम्प ममुद्र में कार्यरूप तरग क्षुद्र ही होता है । इस मत में प्रधानस्प कारण से क्षुद्र कार्य स्थूलरूप में आविर्भूत होता है और उमी मे विलीन होता है । यह मत सास्य और योग दर्शन का है। जैन दर्शन कारण का कार्यस्प में परिणत होने के वार में अपने विशेप तरीके से आरम्भवाद तथा परिणामवाद-इन दोनो प्रक्रियाको को मानता है । कारणस्प से वह परमाणुओ को तथा एकत्रित परमाणुओ से कार्य को स्थलरूप में उत्पन्न होना मानता है। इसलिए इम अग मे जैन दर्शन आरम्भवादी और कारण में कार्य की सत्ता को स्वीकार करने में तथा कारण का ही कार्यरूप में परिणत होना मानने में हम अश में परिणामवादी है। 'आत्मा का क्रोधादिक स्वभाव नव तयाभव्यता के आधार पर व्यक्त होता है, तब उसकी सांसारिक अवस्या रहती है। और जब तथाभव्यता के आधार से ज्ञानादि स्वाभाव का आविर्भाव होता है, तव उसकी मोक्षावस्या आविर्भूत होती है। कपायादिक और ज्ञानादिक-दोनों आत्म-पदार्य के स्वभाव हैं। मोक्षावस्या के आविर्भाविक स्वभावो के उपादेय होने की अपेक्षा कपायादि भाव हेय होने से वभाविक स्वभाव कहे जाते हैं। वभाविक और स्वाभाविक कहे जाने वाले सभी स्वभाव आत्मद्रव्य के पर्याय हैं। १६८
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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