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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-प्रन्थ गुण और क्रिया अथवा पर्याय के आधार को 'द्रव्य' कहा जाता है । आत्मा एक द्रव्य है और ज्ञानादि को उसका विशेष गुण माना गया है । आत्मद्रव्य अनन्त, नित्यानित्य तथा शरीर परिमित है। आत्मा द्रव्य रूप से नित्य है, पर इसका विशेष गुण स्वकीय रूप मे नित्य होने पर भी अवस्थान्तर को प्राप्त होता रहता है, अतएव गुण की पर्यायदृष्टि से आत्मा अनित्य भी है । कारण, इस दर्शन मे गुण को गुणी से कथाचित् अर्थात् कुछ अगो मे भिन्न तथा अभिन्न-दोनो कहा गया है । इसलिए गुण मे परिवर्तन होने के कारण उसके आधार द्रव्य मे भी परिवर्तन होना अनिवार्य है । आत्मा स्वय जिसको प्रकाशित करता है तथा स्वातिरिक्त दूसरे को भी प्रकाशित करता है, यह इसका विशेष गुण है । यही गुण चैतन्य को जड से भिन्न करता है । एक ही आत्मा शुद्ध और अशुद्ध-दो रूप मे भासित होता है । हम जब कोई अच्छा या बुरा कार्य करते है, तो आत्मा अपने ही आप को कहता है कि अरे | यह कार्य तुमने अच्छा किया, यह कार्य तुम्हे नही करना चाहिए था । यहाँ विचार करने वाला आत्मा शुद्ध रूप से और जिसके बारे मे विचार किया जाता है, वह आत्मा राग-द्वेष-अज्ञान आदि से युक्त होकर अशुद्ध रूप से भासित होता है । तव प्रश्न उपस्थित होता है कि अज्ञान, रागद्वेप आदि से युक्त जो आत्मस्वरूप भासित होता है, वह या जो विशुद्धस्वरूप भासित होता है, वह इन दोनो मे कौन-सा स्वरूप यथार्थ है ? इन प्रश्नो के जवाब मे जैन दार्शनिको ने अनन्त ज्ञानादियुक्त राग-द्वेषादि विरहित अत्यन्त विशुद्ध आत्मस्वरूप को ही आत्मा का सत्य स्वरूप बतलाया है, तथा उसे मुक्तात्मा या परमात्मा कहते है। शुद्धाशुद्ध स्वरूप वाले आत्मा को ससारी आत्मा कहा गया है। ससारी आत्मा या जीव कितने प्रकार के होते है । उनका किन नामो से उल्लेख किया जाता है ? इत्यादि विषयो का वर्णन नही करके मैं अब जड-तत्त्व के सम्बन्ध मे कुछ कहना चाहती हूँ। जैनदर्शन जिसमे ज्ञान नहीं है, अथवा जिसमे अनुभव करने की शक्ति नही है, उसे जड कहता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय और काल रूप से जड पांच प्रकार का है । वे अपने विशेष गुणो के कारण परस्पर भिन्न है । आकाश एक व्यापक पदार्थ है । पर इसे कल्पित रूप से दो भागो मे विभक्त किया गया है। धर्म, अधर्म, काल, आत्मा और पुदगल के आधारभूत आकाश को 'लोकाकाश' तथा तद्व्यतिरिक्त आकाश को 'अलोकाकाश' कहा जाता है । सभी को अपने मे स्थान देना, यही इसका विशेष गुण है । धर्म, अधर्म एक-एक अखण्ड द्रव्य है, और लोकाकाश को व्याप्त करके रहते हैं। जीव और पुद्गल को क्रिया करने मे तथा स्थिर रहने में सहायता करना, यही इन दोनो का विशेष गुण है । अनन्त समयात्मक द्रव्य को काल कहा जाता है।' द्रव्यो मे जो परिवर्तन होता रहता है, वह द्रव्य का स्वभाव-सिद्ध गुण है। पर इस परिवर्तन का परिचय हम काल के द्वारा देते है और कहते है कि काल ही सब वस्तुओ मे परिवर्तन लाता है । इसलिए परिवर्तन करना, यही इसका विशेष गुण है । पुद्गल के दो रूप है-अणु और स्कन्ध । पुद्गल का सूक्ष्मतम अश जिसका विभाग नहीं किया १ श्वेताम्बर-शास्त्रो मे काल को पचास्तिकाय का पर्याय बताकर उपचार से द्रव्य माना है।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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