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जैन-दर्शन एक चिन्तन
यह कहना पडेगा । या तो वस्तु के स्वरूप ही अनेक है, अर्थात् वस्तु अनेक धर्मात्मक है यह कहना पड़ेगा। कालिक, दैशिक और वैयक्तिक भेद से उसका विविध रूप ग्रहण होता है और विभिन्न व्यक्ति अपने-अपने ढग से उन्हे समझते है और समझाने की कोशिश करते है ।
परिदृश्यमान जगत् का स्वरूप क्या है ? इसको जानने वाला इन्द्रिय, मन तथा ज्ञान का स्वरूप क्या है ? इत्यादि विषय के प्रश्न को भिन्न-भिन्न रूप से सुलझाने के प्रयत्न को हम 'दर्शन' शब्द मे जैन, बौद्ध, साख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त आदि विशेषण लगाकर सूचित करते है । दर्शन-शास्त्र परिदृश्यमान जागतिक वस्तु को प्रधानत दो दृष्टियो से विचार करता है, अतएव हम दर्शन-शास्त्र को दो भागो मे विभाजित कर सकते है-पहला वास्तववादी दर्शन, दूसरा मायावादी दर्शन । जैन-दर्शन वास्तववादी दर्शन है। वह जागतिक प्रत्येक वस्तु को, और उस वस्तु के प्रत्येक रूप को सत्य मानता है। कार्य-कारण दोनो की वास्तविक सत्ता स्वीकार करता है । कारण यद्यपि विनिप्ट हो जाता है, तथापि जैन-दर्शन कार्यरूप में परिणत वस्तु की सत्ता को यथार्थ कहता है । न्याय-वैशेषिक, साल्य योग, बौद्धो के सौत्रान्तिक और वैभापिक मत वाले दर्शन वास्तववादी दर्शन है। अद्वैत वेदान्त, विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध दर्शन को हम मायावादी दर्शन कह सकते है । मायावादी दर्शन परिदृश्यमान जागतिक वस्तुओ की पारमार्थिक सत्ता नही मानता है । इन सब कल्पित रूपो के मूल मे वह एक मात्र तत्त्व को स्वीकार करता है और उसी एकमात्र तत्त्व को सत्य भी मानता है, परिदृश्यमान शेप सभी वस्तुओ को कल्पित कहता है । जैनदर्शन जागतिक वस्तु को जिस दृष्टि से विचार करता है, उस दृष्टि बिन्दु को हम अनेकान्त दृष्टि कह सकते है । क्योकि वह वस्तु के स्वरूप का अनेक रूप से विश्लेपण करता है । सभी दर्शन अपने-अपने प्रतिपादित वस्तु के स्वरूप को सत्य और अन्य दर्शन प्रतिपादित वस्तु के स्वरूप को मिथ्या कहते है । पर जैन दर्शन अन्य दर्शन प्रतिपादित वस्तु के स्वरूप को सर्वथा मिथ्या न कहकर, उसे किसी न किसी रूप में सत्य भी कहता है । मैं पहले ही बतला चुकी हूँ कि उसके मत से वस्तु अनेक धर्मात्मक है। अतएव प्रतीयमान विरोधी धर्म भी एक ही वस्तु मे किसी अपेक्षा से रह सकता है, और सदृश-विसदृश गुणो का एक ही वस्तु मे प्रतीत होना असम्भव-सा दीखने पर भी वस्तु का बही यथार्थ स्वरूप है। जैन-दर्शन वस्तु के प्रत्येक रूप को सत्य मानकर अनेकान्त दृष्टि से उसका विचार करता है। अब देखना है कि जैन-दर्शन का मुख्यरूप से विचारणीय विषय क्या है ? जागतिक वस्तु का मौलिक तत्त्व क्या है ? मौलिक कारण, कार्यरूप मे कैसे परिणत होता है ? यदि एक से अधिक मौलिक तत्त्व हो, तो परस्पर का सम्बन्ध किस प्रकार का है-इन्ही तीन प्रश्नो के विचार की भित्ति पर ही सारा दर्शनशास्त्र निर्मित है।
जैन-दर्शन जव जागतिक वस्तु का विश्लेपण करता है, तो मौलिक रूप से दो तत्वो को पाता है। पहला चैतन्य तत्त्व, और दूसरा जड तत्त्व ।
मैं जानता हूँ, मैं खाता हूँ, मैं जाता हूँ--इत्यादि वाक्यो मे ज्ञातारूप से या कर्ता रूप से जो वस्तु भासित होती है, वही वस्तु चैतन्य तत्त्व है । हम चैतन्य तत्त्व को अस्वीकार नहीं कर सकते, क्योकि जिस ज्ञान के द्वारा चैतन्य को अस्वीकार किया जाता है, उसी शान के आधार रूप मे चैतन्य या आत्मा आप ही सिद्ध हो जाता है।
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