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________________ भारतीय सस्कृति मे बुद्ध और महावीर बुद्ध-महावीर की भारतीय संस्कृति को देन व्रत, सन्यास और समता की स्थापना तथा यज्ञ, ऋण और वर्ण-व्यवस्था का प्रतिकार बुद्ध और महावीर की देन नही है, वह श्रमण परम्परा को देन है । उसमे उन दोनो व्यक्तियो का महान योग है । उन्होने प्राचीन परम्परा की समृद्धि मे केवल योग ही नही दिया, किन्तु उसे नए उन्मेष भी दिए। बुद्ध ने दो नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए - ( १ ) प्रतीत्य-समुत्पाद वाद, (२) और आर्य-चतुष्टय | प्रतीत्यसमुत्पाद भिक्षुओ । जो कोई प्रतीत्य (समुत्पाद) को समझता है, वह धर्म को समझता है। जो धर्म को समझता है, वह प्रतीत्य-समुत्पाद को समझता है । जैसे भिक्षुमो, गो से दूध, दूध से दही, दही से मक्खन, मक्खन से घी, घी से घीमण्डा होता है। जिस समय मे दूध होता है, उस समय न उसे दही कहते है, न मक्खन, न घी, न घी का मण्डा । जिस समय वह दही होता है, उस समय न उसे दूध कहते है, न मक्खन, न घी न घी का मण्डा । इसी प्रकार भिक्षुओ । जिस समय मेरा भूतकाल का जन्म था, उस समय मेरा भूतकाल का जन्म ही सत्य था, यह वर्तमान और भविष्यत् का जन्म असत्य था । जब मेरा भविष्यत् काल का जन्म होगा, उस समय मेरा भविष्यत् काल का जन्म ही सस्य होगा, यह वर्तमान और भूतकाल का जन्म असत्य होगा । यह जो अब मेरा वर्तमान मे जन्म है, सो इस ममय मेरा यही जन्म सत्य है, भूतकाल का और भविष्यत् काल का जन्म असत्य है | भिक्षुओ । यह लौकिक सज्ञा है, लौकिक निरुक्तियाँ है, लौकिक व्यवहार है, लौकिक प्रज्ञप्तियां है- इनका तथागत व्यवहार करते है, लेकिन इनमे फँसते नही । भिक्षुओ । जीव (आत्मा) और शरीर भिन्न-भिन्न है, ऐसा मत रहने से श्रेष्ठ जीवन व्यतीत नही किया जा सकता । और जीव ( आत्मा ) तथा शरीर दोनो एक है, ऐसा मत रहने से भी श्रेष्ठ जीवन व्यतीत नही किया जा सकता । 1 इसलिए भिक्षुओ । इन दोनो सिरे की बातो को छोडकर तथागत बीच के धर्म का उपदेश देते है अविद्या के होने से सस्कार सस्कार के होने से विज्ञान, विज्ञान के होने से नामरूप, नामरूप के होने से छ आयतन, छ आयतन के होने से स्पर्श, स्पर्श के होने से वेदना, वेदना के होने से तृष्णा, तृष्णा के होने मे उपादान, उपादान के होने से भव भव के होने से जन्म जन्म के होने से बुढापा, मग्ना शोक, रोना-पीटना दुख, मानसिक चिन्ता तथा परेशानी होती है । इम प्रकार हम सारे के सारे दुख स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। भिक्षुओ ! इसे प्रतीत्य-समुत्पाद कहते हैं ।" ។ बुद्ध वचन, पृ० २१-३० १६१
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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