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भारतीय संस्कृति मे बुद्ध और महावीर
के सिद्धान्त का वेदो मे कोई सकेत नही मिलता, किन्तु एक ब्राह्मण मे यह उक्ति मिलती है कि जो लोग विधिवत् सस्कारादि नही करते वह मृत्यु के बाद पुन जन्म लेते है, और बार-बार मृत्यु का ग्रास बनते रहते है।"
वैदिक संस्कृति के मूल तत्त्व
वैदिक संस्कृति के मूल तत्त्व है-यज्ञ, ऋण और वर्ण-व्यवस्था । यज्ञ के मुख्य प्रकार तीन हैंपाक-यज्ञ, हवियज्ञ और सोमयज्ञ' ।
ऋण तीन प्रकार के माने जाते थे--देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृ-ऋण । यज्ञ और होम से देव-ऋण चुकाया जाता है । वेदाध्ययन के द्वारा ऋषि-ऋण चुकाया जाता है । सतान उत्पन्न कर पितृऋण चुकाया जाता है । शतपथ ब्राह्मण मे चौथे ऋण-मनुष्य-ऋण का भी उल्लेख है । उसे औदा या दान से चुकाया जाता है।
वर्ण-व्यवस्था का आधार है-सृष्टि का उत्पत्ति-क्रम । ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय बाहु से, वैश्य ऊरु से और शूद्र पैरो से ।
__ यज्ञ की कल्पना लौकिक और पारलौकिक दोनो है । उसका लौकिक फल है-सुख-शान्ति और पारलौकिक फल है स्वर्ग । ऋण और वर्ण-यवस्था इन-दोनो का फल है समाज की सस्थापना और संघटना । तीन ऋण ब्रह्मचय और गृहस्थ-इन दो आश्रमो के मूल है । ब्रह्मचर्य आश्रम मे रहकर वेदाध्ययन किया जाता और गृहस्थ आश्रम मे प्रविष्ट होकर सतान का उत्पादन । वानप्रस्थ और सन्यास जैसे आश्रम उस व्यवस्था मे अपेक्षित नहीं थे।
वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्त ने जातिवाद को तात्विक रूप दिया और ऊंच-नीच आदि विषमताओ की सृष्टि की।
1 Vedic Mythology, p. 326. २ विशद विवरण के लिए देखिए--वैदिककोश, पृ० ३६१-४२५ ३ तैत्तिरीय सहिता, ६३१५ ४ शतपथ ब्राह्मण, ११७२।१-६ ५ ब्राह्मणोस्य मुखमासीइ, बाहू राजन्य. कृत.।
अरू तदस्य यद् वैश्य , पद्भ्यां शूद्रो अजायत. ॥ .ऋग्वेद सहिता, १०६०१२ • Vedic Mythology, P• 320.
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