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गुन्दैव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्य
वर्द्धमान का धर्म-तीर्थ प्रवर्तन
बर्द्धमान प्रारम्भ से ही अपने निश्चित मार्ग पर चले । उन्होंने कोई गुरु नही बनाया न केवल कठोर तप ही तपा और न केवल ध्यान ही किया । तप भी तपा और ध्यान भी किया। उनका तप ध्यान के लिए था, लेकिन ध्यान तप के लिए नहीं। उन्हें अपनी माघना पद्धति से पूर्ण सन्तोप था। महाभिनिष्क्रमण के माडे वारह वर्ष के पश्चात् उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि हुई 1 वे वर्द्ध मान से महावीर बन गए । मध्यम पावापुरी में उन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया।
भारतीय संस्कृति
भारतीय संस्कृति श्रमण और वैदिक-इन दो धाराओं का संगम है। फिर भी कुछ विद्वान् इस विषय में उलझे हुए हैं। श्रमण संस्कृति को वैदिक संस्कृति की शाखा मानन में गौरव का अनुभव करते है । लटमण शास्त्री जोगी ने लिखा है-जन तथा बौद्ध धर्म भी वैदिक संस्कृति की ही शाखाएँ है, यद्यपि मामान्य मनुष्य इन्हें वैदिक नहीं मानता । मामान्य मनुष्य की इम भ्रान्त धारणा का कारण हैमूलत इन गानाओ के वेद-विरोध की कल्पना । मच तो यह है कि जनों और बौद्धो की तीन अन्तिम कल्पनाएं-कर्म-विपाक, ममार का वन्धन और मोक्ष या मुक्ति-अन्ततोगत्वा वैदिक ही है।
हिन्दू संस्कृति को वैदिक संस्कृति का विकास तथा विस्तार मानने में बीती हुई सदी के उन आधुनिका विद्वानों को आपत्ति है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म का अध्ययन किया है । वे इस निर्णय पर पहुँच है कि विद्यमान हिन्दू संस्कृति असल में वैदिक तथा अवैदिक, आर्य और अनार्य लोगो की विविध मम्कृतियों का सम्मिश्रण स्वरूप है । इन मनीपियों के मत में मूर्तिपूजा करने वालो की पांगणिक संस्कृति अवैदिक एव अनार्य समूहो द्वारा निर्मित सस्कृतियों की उत्तराधिकारिणी है और जैन तथा बौद्ध धर्म वैदिक धर्म के प्रतिद्वन्दी है, वैदिको को परास्त करने वाले प्रवल विद्रोही है । इनके कथनानुसार विद्यमान् हिन्दू संस्कृति भिन्न-भिन्न विचारको की चार धाराओं के मेल से बनी है । पहली धारा है बेटी के पूर्ववर्ती अनायों की मूल सस्कृति की, दूसरी वेदो के पूर्ववर्ती काल के भारतीय अनार्यो पर विजय पाने वाले मार्यों द्वारा स्थापित वैदिक संस्कृति की, तीसरी वेदों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले जैनो तथा बौदा के द्वारा निर्मित सस्कृति की, और चौथी वंदपूर्व संस्कृति के आविष्कार के रूप में अवस्थित मूर्तिपूजक पौराणिक धर्म की।"१
शास्त्रीजी ने जिन अन्तिम कल्पनायो-कर्म-विपाक, ममार का वधन और मोक्ष या मुक्ति को अन्ततोगत्वा वैदिक कहा है, वे मूलत. अवैदिक हैं।
वैदिक साहित्य में आत्मा और मोम की कल्पना ही नहीं है । इनके विना कर्म-विपाक और बन्धन की कल्पना का विशेष अयं नहीं रहता । ए० ए० मैक्डॉनल का अभिमत है-"वाद में विकसित पुनर्जन्म
''वदिक संस्कृति का विकास' पृ० १५, १६
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