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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ वे ब्राह्मण वेद के अध्ययन मे तत्पर रहते थे । स्वय सन्तुष्ट थे और दूसरो को सतोष की शिक्षा देते थे। वैश्य तुलाधार ने उक्त बात ब्राह्मण ऋषि जाजलि से कही । इसमे उस प्राचीन परम्परा की सूचना है, जिसके अनुयायी ब्राह्मण भी अहिंसा-प्रधान थे। मात्म-यज्ञ नमि, अरिष्टनेमि, पाव और महावीर-इन चार तीर्थकारो के काल मे हिसा-पूर्ण यज्ञ का प्रतिरोष होता रहा । हिंसा के जो सस्कार सुदृढ हो गए थे, वे एक साथ ही नहीं टूटे । उन्हे टूटते-टूटते लम्बा समय लगा। तीर्थकर अरिष्टनेमि के तीर्थकाल मे हिंसक यज्ञ के विरोध मे आत्म-यज्ञ का स्वर प्रबल हो उठा था। श्रीकृष्ण, जो अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे, आत्म-यज्ञ के प्रतिपादन मे बहुत प्रयत्नशील थे। अरिष्टनेमि और कृष्ण दोनो के समवेत प्रयत्न ने जो विशेष स्थिति का सूत्रपात किया, उसका परिणाम भगवान् महावीर और बुद्ध के अस्तित्वकाल मे सदृष्ट हुआ। राजा विचरन्नु का वह स्वप्न साकार हो उठा-"धर्मात्मा मनु ने सब कामो मे अहिंसा का ही प्रतिपादन किया है। मनुष्य अपनी ही इच्छा से यज्ञ की बाह्य वेदी पर पशुओ का बलिदान करते है। विद्वान् पुरुष प्रमाण के द्वारा धर्म के सूक्ष्म स्वरूप का निर्णय करे । अहिंसा सब धर्मों मे ज्येष्ठ है । यह वेद की फल-श्रुतियो काम्य कर्मों का परित्याग करदे । सकाम कर्मों के आचरण को अनाचार समझ उनमे प्रवृत्त न हो।" उञ्छ वृत्ति ऋषि के यज्ञ मे धर्म ने मृग का रूप धारण कर यही कहा था-"अहिंसा ही पूर्ण धर्म है । हिंसा अधर्म है।" १ महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६३, श्लोक १८-२१ . महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५, ५-७ अहिंसा सकलो धर्मों हिंसाधर्मस्तथाहित महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २७२, श्लोक २०
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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