________________
यज्ञ और अहिसक परम्पराएँ
प्राणी-यज्ञ
जैन-पुराणो के अनुसार पशु-बलि वाले यज्ञो का प्रारम्भ बीसवे तीर्थकर मुनि सुव्रत के तीर्थकाल में हुआ । यही काल राम-लक्ष्मण का अस्तित्व काल है। इस काल मे महाकाल असुर और पर्वत के द्वारा पशुयज्ञ का विधान किया गया ।' महर्षि नाद ने उसका घोर विरोध किया था।
वैश्य तुलाधार ने पशु-हिंसा का विरोध किया तो मुनि जाजलि ने उसे नास्तिक कहा । इस पर तुलाधार ने कहा-जाजले । मैं नास्तिक नहीं हूँ, और यज्ञ का निन्दक भी नही हूँ। मैं उस यज्ञ की निन्दा करता हूँ, जो अर्थ लोलुप नास्तिक व्यक्तियो द्वारा प्रवर्तित है । हिसक यज्ञ पहले नहीं थे। यह महाभारत से प्रमाणित होता है । राजा विचरन्नु ने देखा-यज्ञशाला मे एक बैल की गर्दन कटी हुई है, बहुत-सी गौएँ आर्तनाद कर रही है और कितनी ही गौएँ खडी है । यह देख राजा ने कहा-गौओ का कल्याण हो । यह तब कहा जब हिंसा प्रवृत्त हो रही थी। जैन साहित्य मे मिलता है कि ऋपभ पुत्र भरत के द्वारा वेदो की रचना हुई थी। उसमे हिंसा का विधान नहीं था । बाद मे कुछ व्यक्तियो द्वारा उनमे हिसा के विधान कर दिए गए । इस विषय मे महाभारत की भी सहमति है कि वेदो मे पहले हिसात्मक विधान नही थे । वहाँ लिखा है-सुरा, आसव, मधु, मास, मछली, तिल और चावल की खिचडो-इन सब वस्तुमो को धूर्ती ने यज्ञ मे प्रचलित कर दिया है । वेदो मे इसके उपयोग का विधान नहीं है । उन धूर्तों ने अभिमान, मोह, और लोभ के वशीभूत होकर उन वस्तुओ के प्रति अपनी लोलुपता ही प्रगट की है।
जैन साहित्य का उल्लेख है-ऋषभ पुत्र भरत द्वारा स्थापित ब्राह्मण स्वाध्यायलीन थे। फिर बाद मे उनका स्थान लालची ब्राह्मणो ने ले लिया । महाभारत में भी ऐसा उल्लेख मिलता है । वहाँ लिखा है-प्राचीन काल के ब्राह्मण सत्य-यज्ञ और दम-यज्ञ का अनुष्ठान करते थे । वे परम पुरुषार्थ-मोक्ष के प्रति लोभ रखते थे। उन्हे धन की प्यास नही रहती थी। वे उससे सदा तृप्त थे। वे प्राप्त वस्तु का त्याग करने वाले और ईर्ष्या-द्वेप से रहित थे। वे शरीर और आत्मा के तत्त्व को जानने वाले और आत्मयज्ञ परायण थे।
'उत्तरपुराण, पर्व ६७, श्लोक ३२७-३८४
वही, पर्व ६७, श्लोक ३८५-४४५ । महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६३ । २-१८ छिन्नस्थूण वृष दृष्ट्वा विलाप च गवा भृशम् । गोग्रहेऽयज्ञवाटस्य प्रेक्षमाणः स पार्थिवः ॥ स्वस्ति गोभ्यो ऽस्तु लोकेषु ततो निर्वचन कृतम् । हिंसाया हि प्रर्वत्तायामाशोरेषा तु कल्पिता ॥ ' महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५ । २३
सुरा मत्स्या मधु मासमासव कृसरोदनम । धूर्त प्रवर्तित हयेतन्नतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ ५ महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५, श्लोक ६-१०
१५५